मिथिला-भाषा रामायण - बालकाण्ड - प्रथम अध्याय


  ॥ श्री गणेशाय नम: ॥

मिथिला-भाषा रामायण

॥ बालकाण्ड ॥

सरसमधुसुधातो गद्यपद्यन्नवीनं
वचनजनिधरायाश्शारदाया अधीनम्‌ ।
सकलजननमस्यास्सन्नमस्यन्ति यस्याः
पदयुगलमतोऽस्या नौमि नित्यं सुभक्‍त्या ॥१॥

वन्‍दे वारणवदनं विघ्नध्वान्तणाशने सूरम्‌ ।

शाङ्करिमतुलोदारं विधिगणशरणं गुणातीतम्‌ ॥२॥


॥ चौपाइ ॥।

वन्‍दे गिरिपति-कन्याकातं । अप्रमेयमगणितगुणशान्तं ॥
राजत-भूधर-द्यु ति-हर-भासं। श्रितकेलासं जगन्निवासं ॥
भुक्तिमुक्तिदं गणपति-तातं। परमोदारतया विख्यातं ॥
श्रीपतिरवनिभारसंहर्त्ता । सेव्यो विभूः स्वतन्त्र:  कर्त्ता॥
कर्त्तुरीप्सितं कर्म्म च येन। मखमवता प्रभुतातस्तेन ॥
तस्मे नमो यतो निर्भीताः। मुनयो भूवन-शान्तये प्रीता: ॥
भक्‍त्या तस्य च नामस्मरणे । मरणे भयमपि नान्‍तःकरणे ॥
हे रघुनन्दन दुर्गति-खण्डन। पालय मां दिनकर-कुलमण्डन ॥


श्रीमन्महीजनिमहो-जनि-जानिगीतिं

                   वैदेह-देश-वचसा रुचिरां सुरीतिम् ।

रामायणीय-चरितस्य सदर्थधारां

                        चन्द्र: प्रगृह्य वितनोति शुभैकसाराम् ॥ ३॥


जनुरिह मम जातं जानकी-जन्मभूमौ

                  बुधसदसि निवासात्प्राप्तविद्यस्य सौख्यं ।

अनुभवत उदार-श्रीललक्ष्मीश्वरैश्शं

                        शृणुत शृणुत धीरा: श्रीलचन्द्रस्य वाचम्‌ ॥४॥


इह जगति यदस्ति स्थावरं जंगमं य-

               त्तदतिशयनमस्यं ब्राह्मतो नापि भिन्नम् ।

भवति भवतु लोके सत्कथायाः प्रचारो

                   जनकनृपति-पुत्री-मातृभाषाञ्चितायाः ॥५॥


॥ चौपाइ ॥

शौनक पुछल कहल भल सूत । अति आनन्द मगन मन पूत ॥
नारद जोगी पर उपकार । करक हेतु सञ्चर संसार ॥
सत्य लोक मुनि पहुचल जखन । देखल विरञ्चिक वैभव तखन ॥
जनिकर सिरिजल सब संसार । तनिक विभव के वरनय पार ॥
बाल दिवाकर सन छवि भास । मार्कण्डेय प्रभृति तट वास ॥
स्तुति करइत छलछथि छल हीन । ककरहु ततय देखल नहि दीन ॥
ब्रह्मा संग शारदा दार। सकल अर्थ जानल व्यवहार ॥
देव चतुर्मुख विश्वक नाथ । तनिका नारद जोड़ल हाथ ॥
भक्ति दण्डवत चरण प्रणाम । कयलनि स्तुति वचनै अभिराम ॥
तुष्ट कहल तनिका खग-केतु । कहु नारद अयलहुँ को हेतु ॥
कहलनि नारद देव समाज । अयलहुँ प्रभू अछि बड़ गोट काज ॥
सकल शुभाशुभ गे किछु रहल । हमरा अपनै  पूर्व्वहि कहल ॥


।। दोहा ।।

कहू कृपा कय भय-हरण, सम्प्रति अछि श्रोतव्य ।
कमलासन मङ्गल-करण, दुष्ट समय भवियव्य ॥


॥ चौपाई ॥ 

होयत कलियुग जखना घोर। सभ जन लम्पट सभ जन चोर ॥
सत्य कथा ककरहु नहि नीक। दुराचार रत मन सबहीक ॥
पर अपवाद मध्य मन निरत । पर-घनमे अभिलाषा फिरत ॥
आनक वनितामे मन सटल । पर हिंसाक परायण  पटल ॥
आत्मा भिन्न देह नहि जान। नास्तिक गति मति पशुक समान ॥
माय बापमे द्वेष अलेख । अपनेँ संसारी सुख देख ॥
वनिता बुझत देव समान । कामक किङ्कर  कुत्सित ज्ञान॥
ब्राह्मणकाँ बाढ़त बड़ लोभ । वेदक विक्रय नहि मन क्षोभ ॥
धनक उपर्ज्जनेँ व्याकुल चित्त । विद्या पढ़ता मोह निमित्त ॥
सभ जन त्यागत निज निज जाति । वञ्चचक व्यवहारी दिन राति ॥
क्षत्रिक वैश्य स्वधर्म्मक  त्याग । करता कि कहब तनिक अभाग ॥।
नीचक उन्नति हयत अपार । शूद्र-निरत ब्राह्मण आचार ॥
बहुतो होइति धृष्टा नारि । पतिकाँ विपति देति कत गारि ॥
श्वशुरक मन्द-कारिणी हयति । स्वेच्छा सुपथै कुपथमे जयति ॥;
तनिकाँ सबहिक की गति हयत । जखना ई परलोक में जयत ॥
कहल जाय की तकर उपाय । सभ ज्ञाता विधि नाम कहाय ॥
शुनि मुनि कथा विरञ्चि उदार । ई भल कथा कयल सञ्चार ॥
भल अहँ पुछल कहै छी नीक । शुभ गति कारक ज सबहाक ॥
एक समय गिरिराज कुमारि । राम-तत्व पूछल  त्रिपुरारि ॥
भक्ति-वत्सला विनयक धाम । बूझल कथा चित्त विसराम ॥
विश्वजननि नित पूजन करथि । लोचन मन आनन्दित धरथि॥
लोकक जखन होयत गय भाग । रामायणक बढ़त अनुराग ॥
पढ़इत नर सदगतिमे जयत । जिबइत पूर्ण मनोरथ हयत ॥
एकादशि तिथि कय उपवास । सभा रमायण करथि प्रकास ॥
वर्ण वर्ण गायत्री जेहन । पुरश्चरण फल पाबथि तेहन ॥
राम-नवमि दिन कर उपवास । रात्रि जागरा मन उल्लास ॥
कुरक्षेत्र तीर्थाद निवास । सूर्य्य-ग्रहणमे पाप विनाश ॥
आत्मतुल्य धन द्विजकाँ देथि । व्यासक सम द्विज दान से छेथि॥
तनिकाँ से फल लाभ अनन्त । सत्य कहल छल गिरिजा-कन्त ॥
प्रति दिन रामायण कर गान । सुरपति आज्ञा तनिकर मान ॥
रामाथणक कथा बड़ गोटि। पढ़लय फल पाबि गुण कोटि॥
हनुमानक प्रतिमाक समीप । राम हृदय शिव मानस दीप ॥
तीनि बेर मौनी जँ पढ़ल । पूर्ण मनोरथ सुखचय बढ़त ॥


॥ सवैया ॥

करथि प्रदक्षिण पीपर तुलसिक, राम हृदय पढ़इत जे भक्त ।

ब्रह्मघात पातक सभ छुटय, भक्ति भावना मन अनुरक्त ॥


॥ चौपाइ ॥

कहल महात्मा राम-गीताक । जानथि एक कान्त गिरिजाक ॥

तकर आधा गिरिजा पुन जान । तकर आधा हमरा अछि ज्ञान ॥

से हम किछु कहइत छी आज । सावधान सुनु सकल समाज ॥

जनितहिँ मन निर्म्मल भय जाय । श्रीपत्ति गीता देल पढ़ाय ॥

उपनिषदुदधिक मन्‍थन कयल । गीता-सुधा राम से धयल ॥॥

से लक्ष्मणकाँ कहि देल कान । अमर भेला से शुनि से ज्ञान ॥


॥ रूपमाला ॥

धनुर्विद्या पढ़य कारण शैलजेश समीप ।

                           कार्त्तवीर्य्यक नाश-कारण  पूर्व्व भृगुकुल-दीप।

पार्व्वती ओ शम्भुकाँ से छल कथा संवाद।

                        शुनल धारण कयल मनमे भेल अति आह्लाद।

ब्रह्महत्या आदि पातक शीघ्र होथ विनास।

                       राम-गीता पाठसोँ मन भक्तिसोँ एक मास।

दुःप्रतिग्रह निन्द्य भोजन असद्भाषण पाप।

                        नाश हो एक मास पढ़लोँ रामचरित्र प्रताप।


॥ नरेन्द्र दोबय हरिपद ॥

शालग्राम तुलसी यति सन्नीधि गीता पाठ जे करथी।

वचन अगोचर से फल पाबथि भव जलनीघधि से तरथी।

नीराहार एकादशि दीनमे द्वादशि संयम कारी ।

वृक्ष अगस्तीक नीकट वासकर तनिकर फल बड़ भारी।

जानि लेब तनिकाँ रघुनन्दन सकल देव कर अर्च्चा।

जीवन्मुक्त भक्तिसौँ संयुत यम घर तनिका न चर्च्चा।

विना दान सौँ विना ध्यान सौँ विना तीर्थ मे गेले।

राम गीत अध्ययन मात्र मे फल अनन्त अछि धैले।

शुनु मुनि नारद बहुत कहब की श्रुत्तिस्मृति सकल पुराणे ।

रामायणक कथा तुलना नहि ई गीत अछि किछ आने।


॥ हरिपद ॥।

कमलासन नारद सौँ कहलनि रामायण तहिठाम।

श्रद्धासौँ पढ़ि सुनि जन जायत सुर पूजित हरिधाम ।


॥ चौपाई ॥

पृथिवी काँ बाढ़ल बड़ भार । चिन्मय पुरुष लेल अवतार ॥

कयल प्राथना ई सुर-लोक । कहलनि धरणी काँ बड़ शोक॥

पृथवी मे रघुकुल अवतार । धय प्रभू हरलनि पृथिवी भार॥

पुन ब्रह्मत्व पदहि चल गेल । पाप विनाशि वृहत यश  भेल॥

जानकि-नाथक करिय प्रणाम । भुक्ति-मुक्तिप्रद जनिकर नाम ।

कारण उत्पत्ति स्थिति नाश । माया-बाहर माया-वास ।।

मूत्ति अचिन्त्य सान्‍द्र आतन्द । अमल सुबोध-रूप सुख-कन्द ॥

विदित-तत्व सीतेश प्रणाम । हम करइत छी मन सुख काम॥।

पढ़ शुन नित्य रामायण जैह । सकल पाप हर गुणमय सैह॥

नारायण पद सुख सौँ जयत । तनिकाँ कष्ट लेश नहि हयत ॥।

जौँ इच्छित भव बन्धन मुक्ति । पाठ रामायण अंछ बड़ युक्‍ति॥

कोटि-कोटि जे कर गोदान । से फल सम जे पढ़ इ पुरान॥

पुरब समय शिव विश्व-निवास । छल छथि बसइत गिरि कैलास ॥

मणि सिंहासन बैसल ध्यान। यति-वर एहन दोसर के आन॥

सिद्ध संघ सौँ सेवित चरण । अभय त्रिनेत्र सकल अघ हरण ॥

गिरिजा प्रश्न कयल तहि ठाम । वास जनिक शंकर तन वाम ॥

हे परमेश्वर जगन्निवास । सकल चराचर अहँक विलास ॥

कय प्रणाम हम पूछिअ सैह । परम इष्ट अपनैँ काँ जेह ॥

भक्त छड़ि अनका नहि कहथि । बुध विज्ञानि लोक जे रहथि ॥।

ईश्वर अपनैँक ईश्वर राम । जनिक जपैत रहैछी नाम ॥

स्त्री स्वभाव सौँ पूछल फेरि । राम तत्त्व विभु कहु एक बेरि॥

मानुष रूपक धारण कयल। दशरथ नृपक पुत्र  बनि अयल॥

तृण दिव्यास्त्र जयन्तक बेरि । शिव धनु तोड़ल तृण सम फेरि॥

गौतम-गोहिनि छलि पाषाण । तनिकर कयल राम कल्याण ॥

अगम जलधि मे बाँधल सेतु । बानर  योधा रावण हेतु ॥

मानुष रूप अमानुष काज । एक कथा पुछइत हो लाज ॥

निर्ग्गुण ब्रह्म सगुण अवतरल । दुष्टभार धरणिक सभ हरल॥

जनिकाँ सुख लेश” न व्याप । सीता-कारण कयल विलाप॥


॥ रोला छन्द॥

पुछल भक्ति सौँ जखन कथा ई गिरिवर-कन्या।

                अति प्रसन्न शिव कहल प्रिया अपनै अति धन्या ॥

जनु मयूर आनन्द मेघ-माला घुनि शुनि शुनि।

                रामचन्द्र काँ कय प्रणाम-तनि तत्त्व कहल पुनि ॥

प्रकृतिहुँ पर छथि अनादि पुरुषोत्तम रामे।

                अद्वितीय आनन्द सकल कारण विश्रामे ॥

तनिके सभ चैतन्य दृश्य सकलावच्छिन्ने

                        लिप्त कतहु नहि होथि गगनवत पुन से भिन्ने ॥

सृष्टि सकल व्यवहार करथि जनिकर वर माया।

                    मिथ्या सत्य प्रतीति यथा जल गगनक छाया ॥।

विषयी जन काँ भास दोष सौँ दुषित दृष्टी ।

                उत्तर दक्षिण कहथि विपर्य्यय भय गेल सृष्टि ॥

होइछ दिवा न रात्रि भानु काँ गिरिजा जहिना।

                    नहि तम सम अज्ञान राम चिद्घन रवि तहिना॥

जाग्रत्स्वप्न सुषुप्ति सकल साक्षी से निष्फल।

                तनिकर सेवा विना जन्म काँ मानब निष्फल।


॥ चौपाइ ॥

कति बेरि राम लेल अवतार । कति बेरि हरलनि अवनी भार॥

ओ रमायण अछि शत कोटि । ब्रह्मलोक महिमा बड़ि गोटि॥

सबल सपुत्र दशानन मारि। धरणी भार सकल देल टारि॥

मारुत तनय  प्रभृति महावीर । ज्ञान भक्ति शुरत्व गभीर॥

सीता लक्ष्मण कपिपति सहित । अयला निजपुर विधि शिव सहित ॥।

गुरु वसिष्ट विधि सौँ अभिषेक । पाओल राज्य राम नृप एक।।

सिंहासन संस्थित महिपाल । कोटि सुर्य्यसम कान्ति विशाल।॥।

अञ्जनि-सुतकाँ भक्ति न थोड़ि । आगाँ ठाढ़ भेल कर जोड़ि॥

प्रभु जानथि हनुमानक धर्म्म । अतिशय अद्भुत हिनकर कर्म्म।।

लोभक रहित कयल सभ काज । ज्ञान चहै छथि से पुन आाज।॥

शुनु वैदेही कहिऔनि ज्ञान। अधिकारी सेवक हनुमान ॥

हमरहि निकट सुचित भय रहिय । हमर तत्त्व हिनका अहँ कहिय ॥

वैदेही प्रभु आज्ञा पाय । कथा कहल हनुमान बुझाय।॥।


॥ सोरठा ॥

जानब अहँ हनुमान, परब्रह्म श्रीराम काँ।

ई निश्चय करु ज्ञान, मूल प्रकृति हमहीँ थिकहूँ ॥

उद्भव पालन नाश, हमहिँ स्वतन्त्रा कारिणी ।

हमरहु हुनके आश, तनिके सन्निधि मुख्य बल ॥


॥ चैपाइ॥

राम अयोध्या वर रघुवंश । जन्म लेल शिव मानस हंस॥

मुनि मख रक्षा भेलनि तखन। कौसिक मुनि संग गेला जखन॥

छली अहल्या पाथर भेलि । शाप छुटल उत्तम गति गेलि॥

जनक-पूरी मे शिव धनु भंग । कयलनि बहु विधि सज्जन संग॥

परिणय हमर भेल प्रभू सँ । परशुराम अयला भल रंग॥

परिचय पाबि गेला तप भूमि । क्षत्रिय अरि नहिं भेला घूमि।। 

बास अयोध्या बारह वर्ष । नित नव नव अनुभव हिअ हर्ष ॥

केकयि कहल भेल वनवास । दशरथ छोड़ल जीवन आश॥

चित्रकूट सौँ दण्डक गहन । कयल निवास बहुत दुख सहन॥

निधनि विराध तथा मारीच । यति बनि आयल रावण नीच॥

मोक्ष कबन्‍धहुकाँ भेल तेहन । मुनि लोकहुकाँ दुर्ल्लभ जेहन ॥

शवरी भक्ति सूपूजन कयल । तनिकाँ मुक्ति युक्‍ति छल धयल॥

सुग्रीवक संग मैत्रीकरण । तनिक हेतु बालिक भेल मरण॥

सीतान्वेषण कपषि प्रस्थान । लंका दग्ध कयल हनुमान॥

रावण काँ रण मारण हेतु । बाँधल गेल समुद्रहुँ सेतु॥

लंका घेरल बजरल मारि। रावण मरण सुरण मे हारि॥

तनिकर पुत्र प्रभृति नहि रहल। बहुत अवज्ञा प्रभुवर सहल॥

देल बिभीषण  जनकाँ राज। प्रभुवर शरण धयल निर्व्याज॥

पुष्पक चढ़ि प्रभु हमरा सहित। जनपद अयला अरिसौँ रहित॥

राजा राम नाम अभिषेक। कहल कथा संक्षेप विवेक॥

सकल कयल हमहीँ सब कर्म्म। ज्ञानी जानथि एकर मर्म्म॥

निर्व्विकार अखिलात्मा राम। ई आरोप कि तनिका ठाम॥


॥ सोरठा ॥

सुनि गिरिजा वृत्तान्त, महादेव कहलनि कथा।

तखना सीताकान्‍त, मारुतनन्दन सौँ कहल ॥


॥ दोहा ॥

यथा जलाशय त्रिविधि नभ, देथि पड़ै अछि जैह ।

महाकश हृद मे तथा प्रतिबिम्बहु मे सैह॥

एक पूर्ण चेतन्य मे जीव भ्रम आरोप।

त्रिगुणा मायाकृति सकल, तत्त्वज्ञान सैँ लोप॥

तत्वमसि प्रभृतिक श्रुतिक, महावाक्य सौँ ज्ञान।

निश्चय मन भेलैँ तहाँ, ब्रह्म जीव नहि आन॥

मननशील जे हमर जन, जानि जाथि मद्भाव।

ज्ञान विना हो मोक्ष नहि, बहुत जन्म जौँ पाब॥

ई रहस्य अहँ काँ कहल, हम अपनहिँ शुभ ज्ञान।

भक्तिहीन काँ देब नहि, जौँ हो इन्द्र समान॥


॥ चैपाइ॥

 गिरिजा शंकर काँ संवाद । रघृपति हृदयक बड़ मर्य्याद॥

 ई गोट पढ़लए रहए न पाप। गोपनीय थिक प्रबल प्रताप॥

 पढ़थि भक्तियुत जे मन लाय। ब्रह्म-बधादिक पाप मेटाय॥

 बहुजन्मार्ज्जित पापक नाश । यमक यातना कृत नहि त्रास॥


 ॥घनाक्षरी॥

जाति पाति नष्ट भ्रष्ट पापी पर-धन-रत बह्मघाती उतपाती

मित्रजन नासी जे। कुल मे कलंकि ओ कुलघ्न हेमचोर चढ़ योगिवृन्द-

अपकारी धर्म्म मे उदासी जे ॥ रामचन्द्र पूजिकै करय जे हृदय-पाठ

योगीन्द्र अलम्य पदहीक होथि वासी से । 'चन्द्र' भन सर्व्व लोक विजयि 

विभृतिमान पड़थि न कदापि कठोर जम फाँसी से ॥।

 इति श्री मैथिल चन्द्रकवि-विरचिते-मिथिला-भाषा रामायणे प्रथमोऽध्यायः।


मिथिला-भाषा रामायण - बालकाण्ड - द्वितीय अध्याय

 ॥ चौपाइ ॥

शिव शिव कहल शुनल हम कान । रामायण वर अमृत समान ॥

पिबइत पिबइत तृप्ति न भेल । भव सन्‍ताप सकल चल गेल ॥

धन्य भाग्य थिक मन मे गुणल । रामतत्व संक्षेपहि शुनल ॥

कयल अनुग्रह संशय छुटल । अपनेसौँ शुनि रामक पटल ॥

शुनब कथा सम्प्रति विस्तार । कहु कहु प्रियतम परम उदार॥

अति आनन्द शम्भू शुनि चित । राम-चरित दुखहरण निमित्त ॥

पूर्व्व काल हमरा गुणधाम । कहलेँ छल छथि अपनहि राम ॥

संप्रति हम कहइत छी सैह । दुख अज्ञान निवारक जैह ॥

चिरजीवी सन्‍तति अति ऋद्धि । श्रोता हाथ सकल गोट सिद्धि॥


॥ दोवय छन्द ॥

एक समय भयदीना अवनी भारेँ व्याकुल भेली ।

सुरभिरूप बनि कनइत कनइत धाम विरञ्चिक गेली॥

सकल देवगण तनिकाँ संगे पुछलनि विधि कहु धरणी।

सञ्च सत्य से सबटा कहलनि दुष्ट दशानन करणी ॥


॥ चौपाइ ॥

यजन सुजप मुनि तप जे करथी। तनिकर राक्षस प्राणे हरथी॥

हरि हरि अनइछ अनकर नारि। डरसौँ के कर हुनि सौँ मारि॥

थर थर काँपथि सब दिकपाल । रावण जनमल भल-जन-काल ॥

घारण धर्म्म देल समुझाय । भार अपार सहल नहि जाय ॥

सकल दु:ख हम देल जनाय । अपनहि बुड़लै युग बुड़ि जाय॥

जौँ अपने नहि टारब भार । होयत अकालहि लय संसार ।॥

कमलासन शुनि ध्यानवस्थ । सकल देवगण छला तटस्थ॥

कहलनि विधि चलु हमरा संग । अहँक दुःख सब होयत भंग॥

क्षीरसमुद्र तीर मे जाय। ब्रह्मा बैसला ध्यान लगाय॥

स्तुति कयलनि पढ़ि श्रुति सिद्धान्त । जय नारायण लक्ष्मीकान्त ॥

स्तोत्र पढ़ल जे पठित पुराण । गद गद वचन परम विज्ञान॥।

हर्षक नोर बहल जलाधार । प्रभु प्रसन्न भेल करुणागार॥

जोति-प्रकाश भानु सम भेल । श्रीनारायण दर्शन दल ॥

इन्द्रनीलमणि छविमय अंग । स्मित-मुख लोचन पङ्कज रंग।॥।

हार किरीट तथा केयूर । कटकादिक शोभा भरि पूर॥

श्रीवत्सान्वित कौस्तुमभ राज । सनकादिक स्तुति करिथ समाज ॥

पार्षदलोक सकल - छल ततय । प्रकट भेला (ह) पुरुषोत्तम जतय॥

शंख रथाङ्ग गदा जलजात । कनक-जनौ कनकाम्बर गात॥

लक्ष्मीसहित गरुड़पर चढ़ल । देखितहि विधि मन आनन्द बढ़ल॥


॥ वानिनी छन्‍द ॥

शत शत शतत नमस्कार देवदेव आजे।

दीना पृथिवीक दुष्टभारनाश काजे ॥॥

अपनैक त्रिगुणात्म सृष्टि सर्व्वमान्य माया।

रचना-प्रतिपाल-नाश-कारिणी अकाया ॥१॥

निर्गुण सगुणावतार  भूमि-भार-हर्त्ता ।

स्वेच्छासौँ एकसौँ अनेकरूप  धर्त्ता॥

संसृति-जलराशि-तरण नावकल्प भक्ति।

सकल-पदार्थदा अनन्तसारशक्ति ॥२॥


॥ चौपाइ ॥ 

स्तुति करइत विधिकाँ विभु कहल। अपने सबहि दुःख बड़ सहल॥

विधि कहु की करु हम उपकार । शुनि विधि मत भेल हर्ष अपार ॥

परमेश्वर शुनु रावण नाम । राक्षसेन्द्र बस लङ्का-धाम ॥

ओ पौलस्त्यक तनय भहान । संप्रति दुष्ट एहन नहि आन॥।

हम वर देल भेल अन्याय । हमरहि सबकाँ भेल बलाय।॥

के कह तनिका नीति बुझाय । उचित न बिरनी-बृन्द जगाय।॥

तीनि लोक मे से के लोक । जनिका रावण देल न शोक ॥ 

एक गोट अछि तनि मे आश । मानुष हाथेँ तनिक विनाश ॥।

राखल जाय देव संसार । अपनै धरु नर-वर अवतार॥

दुख शुनि तखन कहल भगवान । नीक नीक होयत कल्याण ॥

हम सन्तुष्ट देल वरदान । तकरा मध्य कथा नहि आन॥

कश्यप बहुत तपस्या कयल । विष्णु होथु सुत ई मन धयल॥ 

संप्रति दशरथ से तप बेसा। छथि से उत्तर कौशल देश॥

तनिकर पुत्र होयब हम जाय । कौशल्या सौँ शुभ दिन पाय॥

चारि रूप हम अपनहि हयब । केकयि सुमित्रा पुत्र कहयब ॥

माया हमरे अज्ञा पाय। सीता नाम कहौतिह जाय॥

तनिकाँ संग हरब महि भार । माया लीला अति विस्तार॥

बहुत कयल विधि प्रभु गुणगान । ई कहि भेला अन्तर्धान ॥

होयत रघुकुल विभु-अवतार । माया मानब गुण-विस्तार ॥

अपनहुँ सबहिँ एहन मति करब । वानर भालु रूप भल धरब॥

यावत प्रभु महि मण्डल रहथि। होयब सहाय जतय जे कहथि॥

ई सब देव सकल शुनि लेल । दृढ़ भरोस धरणी काँ देल॥

धरणी धरु घरु धीर सूचित्त । विभू अवतरता अहँक निमित्त॥

मनवांछित अहँकाँ अछि जैह । सकल-शाक्तयुत होयत सैह ॥

सूख सौँ विधि गेला निज लोक । ई शुनि काश्यपीक कृश शोक॥

इति श्री मैथिल चन्द्रकवि-विरचिते-मिथिला-भाषा रामायणे द्वितियोऽध्यायः।

मिथिला-भाषा रामायण - बालकाण्ड -तृतीयोऽध्यायः

  

॥ चौपाइ ॥ 

राजा दशरथ बड़ श्रीमान । सत्य-पराक्रम एहन न आन ॥

पुरी-अयोध्याधिप अति वीर । सकल-लोक-विश्रुत रणधीर ॥

पुत्र-हीन चिन्तातुर चित्त । गुरु-समीप-गत तकर निमित्त॥ 

कयल सविधि गुरु-चरण प्रणाम । कहलनि पुत्र-हीन धिक धाम॥

गुरु अपनेँ सन राज्य पवित्र । पुत्रहीन की कर्म्म विचित्र॥

कयल जाय गुरु तेहन उपाय । श्री-परमेश्वर होथि सहाय॥

पुत्रहीन केँ राज्यक भोग्य। लुप्त-पिण्ड-क्रिय पुत्र न योग्य ॥

लक्षण-लक्षित पुत्र अनेक । हमरा होथि से करूँ विवेक॥

गुरु वशिष्ट कहलनि तत्काल । चिन्ता मन जनु करु महिपाल ॥

चारि पुत्र अहँकाँ नृप हयत । जनिक सुयश त्रिभुवन मे जयत॥

शान्ता-स्वामी मित्र जमाय । आनू तनिकाँ अपनहि जाय॥

काम-यज्ञ करु विधि सौँ भूप । हमरा सब मिलि कर्म्म अनूप ॥

अङ्ग देश मे भाग्य विशाल। रोमपाद नामक महिपाल॥

पुत्र न तनिकहुँ गत कत वर्ष । चिन्तातुर मन रहल न हर्ष॥

तनिकाँ कहलनि सनत्कुमार । पुत्र होयत करु एहन विचार ॥

श्रृङ्गीऋषि जौँ एहि थल आब । तनिका सौँ बाढ़य सद्भाव ॥

 शान्ता कन्या तनिकाँ देब । मनवांछित फल हुनि सौँ लेब॥

श्रृङ्गी रहता घरहि जमाय । साध्य कार्य्य पुत्रेष्टि कराय॥

मन्त्री सभ काँ पुछल नरेश । श्रृङ्गीऋषि आबथि एहि देश॥

मन्त्रीगण सुनु भण महराज । बड़ गड़बड़ सन लगइछ काज॥

ओ वनचर व्यवहार न जान । सभकाँ मानथि एक. समान॥

वनिता पुरुष भेद नहि चित्त । जाएत के वन तनिक निमित्त॥

यह क्रोधी मुनि तनिकर बाप | अनुचित देखलेँ देथिन शाप ॥ 

सुमिरि सुमरि तनि पुण्य प्रताप हे महिपति जिव थर-थर काप ॥ 

शृङ्गी पिता विभाण्ड स्वभाव । साध्य न मन्त्री देल जबाब ||


॥ दोबय छन्द ॥


भूपति तखन वार - वनिता कैँ अपना निकट बजाओल ।

अपन निमित्त शृङ्गीऋषि आबथि सब कहि काज शुनाओल ॥ 

मुनि-मन-मोहिनि तोहरि सनि के जौँ ओ मुनिके लयवह ।

हमर मनोरथ - सिद्धोत्सव मे कोटि-कोटि धन पय पएब ॥ 

हाथ जोड़ि गणिकागण बाजलि साधक कार्य्य विधाता।   

आनब हम ठानब प्रपञ्च बड़, स्वस्थ चित्त रहु दाता ॥

तकइत तकइत सभजन पहुचलि पाओल तनिक ठेकाना । 

रतिपति-वर्द्धन राग अलापय रतिचेष्टा कर नाना ॥ 

सञ्च सञ्च शृङ्गी लग सभ जनि गणिका ओ संप्राप्ता ।  

तनिस अतिथि सपर्य्या पाओल तनिक जनक भय व्याप्ता ॥ 

गाबि गाबि नित गीत मनोहर मिलि मिलि मुनि तन जाथो ।  

कन्द मूल फल प्रीति सौँ देथि जे मुनिहिक सोझाँ खाथो ॥ 


|| सोरठा ॥


फल हमरो मूनि खाउ, लाइलि छी बड़ि दूर सौँ ।  

कि कहब आश पुराउ, उचित कहल 'वेश्योक्ति शुनि॥


॥ हरिपद ॥


मोदक मधुर मनोजविवर्द्धन सुधा-समान विलक्षण । 

गणिका देथि वनी नहि जानथि लगला करय सुभक्षण ॥ 

एक वर्ष सहवास नियत छल छल न बुझल दुर्ल्लक्षण । 

रतिपति-गति संप्राप्त जानि मुनि लय गेली पुर तत्क्षण ॥ 

बड़ उत्सव महिपाल कयल तत शान्ता कन्या देलनि । 

शृङ्गी मुनि जमाय सौँ मख-विधि पूर्ण मनोरथ भेलनि ॥ 

रोमपाद पुत्रोत्सव पाओल ओ नृप अहँकाँ मित्रे । 

शान्ता सहित तनिक पति आबथि कार्य्य-सिद्धि की चित्रे ॥


।। चौपाई ||


गेला रोमपाद नृप देश | श्रीयुत दशरथ विदित नरेश ॥ 

मित्र-भवन रहला किछ काल | कहल प्रयोजन निज महिपाल ॥ 

शान्ता कन्या शृङ्गि जमाय । तनिकाँ दिओनि अयोध्या जाय ॥ 

कयल लेआओन कन्या जानि । रोमपाद घर सभ लेल मानि ॥ 

जाथु अवश्य अपन घर नीक । हिनका गेलैँ निश्चय नीक ॥ 

चलला कन्या - संग जमाय । दशरथ हर्ष कहल नहि जाय ॥ 

पहुँचलाह नृप अपना नगर । भेल हकार नगर मे सगर ॥

तनिक चुमाओन उत्सव गीति । सुता जमाइक सन सब रीति ॥ 

सभ रानी मन हर्ष अपार । नित नव वर कन्या व्यवहार ॥ 

दशरथ यज्ञ कयल तत गोट । इन्द्रक विभव देखि पड़ब छोट ॥ 

महिमै जतेक महीप छलाह । दशरथ-यज्ञ-समय अयलाह ॥ सभ

सभहिक कयल परम सन्मान । गुरु वसिष्ठ वरु - मन्त्रि-प्रधान ॥ 

यज्ञारम्भ वसन्त विचारि । सहस्राक्ष मन मानल हारि ॥


॥ हरिपद ॥


दशरथ नृपति विष्णु मतिसौँ तत शृङ्गी मुनिकेँ अनलनि । 

मन्त्रीसहित नृपति अति शुचिसौँ सविधि काम-मख ठनलनि ॥ 

पापराहत चित मुनि श्रुति- पारग बहुत यज्ञमे अयला । 

होम अनल सौँ दिव्य पुरुष एक स्वर्ण-वर्ण बहरयला ॥ 

पायसपूर्ण पात्र कर लेलय कहि गुण नृपकैँ देले । 

थोड़हि दिनमे परमेश्थर सुत मन मानू अछि भेले ॥ 

पायस लेल नृपति आनन्दित मुनि- गुरुपद कय वन्दन । 

अन्तर्द्धान अग्नि कहि भेला आधि भेल सब खण्डन ।

गुरु वसिष्ठ शृङ्गी ऋषि कहलनि रानी पायस खयतो । 

को विलम्ब शुभ अबसर नृप अछि पूर्ण-मनारथ हयता ॥ 

कौशल्या केकयी छली तँह दूइ भाग कय देलनि । 

ततय सुमित्रा पाछाँ अइली तनिकाँ नहि किछु भेलनि ॥


अपन भागसौँ दुनु जनि रानी अर्द्ध भाग पुनि कयलनि॥ 

देल सुमित्रा काँ तीनू जनि पायस से तहँ खयलनि ॥ 

सभ जनि भेलि सगर्भा तनिकहि छवि सौँ मन्दिर शोभित॥

जगन्निवास जत कयलनि कोटि भानु शशि क्षोभित ॥ 


॥ हंसगति छन्द ॥


भक्तक वश भगवान एहन मति फुरलनि ।

दशम मास मधु आश प्रभु पुरलनि ||

कौशल्या थिकि धन्य जनिक सुत भेलाह |

ब्रह्मानन्दानन्देँ दोष दुख गेलाह ॥ 

शुक्लपक्ष नवमी शुभ कर्क उदित हित । 

मध्य दिवस नक्षत्र पुनर्व्वसु अभिजित ||

पञ्चग्रह उच्चस्थ मेषमे दिनकर | 

सृष्टि त्रिगुण उत्पत्ति शक्ति कर जनिकर |


|| चौपाइ ॥


वारिद वरिसल तखना फूल | जन्म लेल सभ सम्पति मूल ॥ 

नीलोत्पलदल श्यामल राज । चारि सुभुज कनकाबर भ्राज ॥ 

अरुण जलज वर सुन्दर नयन । कुण्डल मण्डित शोभा - अयन ॥ 

सहस सूर सन सुछवि प्रकाश । कुटिल अलक सुमुकुट भल भास ॥ 

शंख रथाङ्ग गदा जल - जात | वनमाली स्मितमुख अवदात ॥

नयन करुण सरसौँ परिपूर । इन्दी वर शोभा कर दूर ॥ 

श्री श्रीवत्स हार रमणीय | केयुर नूपुर गण कमनीय ॥


॥ दोहा ॥


कौशल्या देखल सकल, अदभुत बालक भेल । 

कहलनि से कर जोड़िकेँ, कनइत हर्षक लेल ॥


।। चौपाई ॥


वार वार करिय प्रणाम । हम अबला अज्ञानक धाम ॥ 

वचन बुद्धि मत पहुँच न जतय । स्तुति हम कि करब फुरयन ततय ॥

रचना पालन प्रलय स्वतन्त्र | विश्व चढ़ल भल माया-यन्त्र ॥

ब्रह्म अनामय हर्षक मूल । हमरा पर से प्रभु अनुकूल ॥ 

अहँक उदर-वर बस संसार । हमर तनय बनलहुँ व्यवहार॥

 कहइत छी प्रभु हम कलजोड़ि । रूप अलौकिक ई दिअ छोड़ि ॥ 

एहि रूपक हमरा रह ध्यान । बनल रहय नित ई हित ज्ञान ॥ 

सुन्दर शिशु सरूप अहँ धरिय।  दिन दिन देव कृतार्थित करिय ॥


॥ रोला छन्द ॥


तखन कहल श्रीनाथ अम्ब वांछित अछि जेहन । 

किछु नहि करब बिलम्ब रूप करइत छी तेहन ॥ 

भूमि भार हरणार्थ विधि स्तुति बहुत शुनाओल । 

अहँ दशरथ तप कयल तकर फल दर्शन पाओल ॥ 

हमर होथु श्रीनाथ पुत्र पूर्व्वहि मँगलहुँ वर । 

दुर्ल्लभ दर्शन हमर लाभ अछि नहि संसृति डर ॥ 

ई संवाद जे पढ़न शुनत सारूप्य हमर से  । 

दुर्ल्लभ हमर स्मरण अन्तमे पाओत नर से ॥


।। चौपाई ॥


ई कहि बनला सुन्दर बाल । इन्द्रनील छवि नयन विशाल ॥ 

बाल अरुण तन दिव्य प्रकास । जनिकर माया विश्व विलास ॥ 

पुत्र जन्म शुनि मुदित महीप । सत्वर गेला (ह) गुरुक समीप ॥ 

सहित वसिष्ठ देखल नृपतनय । हर्ष किछु नहि कहइत बनय ॥ 

जय जय शब्द सकल थल सोर । नृपति नयन वह हर्षक नोर ॥ 

तखन कयल नृप जातक कर्म्म । उत्तम कुलक उचित जे धर्म्म ॥ 

केकयि सौँ उत्पति सुत भरत । कमल कि लोचन - समता करत ॥ 

पुत्र सुमित्राकाँ दुइ गोट । लक्ष्मण ओ शत्रुघ्न सुछोट ॥

देल विप्र काँ गाम हजार ।  बड़ गोट उत्सव चारि कुमार || 

कनक रत्न पट ओ गोदान । करथि नृपति जौँ हो कल्यान ॥


॥ घनाक्षरी ॥


मगन महीप मन देखि याचक गन, देव देव करथि अनन्त रत्न वरषन । 

कत रथ चढ़ि कत गजराज पीठ कत वाजिराजिन रहल चित्त घरषन ॥ 

सोहर मनोहर सुगाब किन्नरो नरोक बनलि सुरुप एत जन केओ परख न ॥ 

देवदुन्दुभीक धुनि गगन प्रसून-वृष्टि रामचन्द्र जनम उत्सव की प्रहरगन ॥


।। चौपाई ॥


रमित होअ मुनि-मन जहि ठाम । तनिकर नाम धएल मुनि राम ॥ 

कारक भरण भरत तैँ नाम । लक्षण युत लक्ष्मण गुण-धाम ॥

करता गय शत्रुक संहार । नाम  धयल शत्रुघ्नउदार ॥ 

रामक सह लक्ष्मण रह सतत । शत्रुघ्नो भरतक संग निरत ॥ 

दुइ दुइ जन  पायस अनुसार । बाल सुलीला कर सञ्चार ॥ 

बालक वचन सुधाक समान । राजा रानी शुनि शुनि कान ॥ 

मन आनन्द कहल की जाय । वचनमे - मनोहर चारू भाय ॥ 

बाल विभूषण शोभा वेश । से देखि रानी मुदित नरेश ॥ 

नाचथि गाबथि नाना रङ्ग । सम वय बालक लय लय सङ्ग ॥ 

नृपति बजाबथि भोजन बेरि । हँस पड़ाथि लग जाथि न फरि ॥ 

कौसल्याकाँ कह तह  भूप।  पकड़ि लाउ बालककाँ चूप॥ 

हसइत कहुखन अपनहि आब । कादो माटि हाथ लपटाब॥ 

किछु किछु नृपति रुचि सौँ खाथि । चञ्चल खेड़िक हेतु पड़ाथि॥ 

बालक कौतुक जे प्रभु कयल । से शिव गिरिजा मानस धयल ॥

बरुआ भेला चारू कुमार ।  उपनयनक गुरु  कयल विचार ॥

चारू जन विधि सौँ उपनात । सभ विद्या पढ़ि परम विनीत ॥ 

धनुर्वेद-विद्या-निष्णात  । शास्त्र न एक तनिक अज्ञात ॥  

राम संग लक्ष्मण नित रहथि । आज्ञा करथि राम जे कहथि ॥ 

शत्रुघ्नो भरतक सग तेहन | लक्ष्मण राम राति मति जेहन || 

अश्व चढ़ल कर धनुष सुबाण | नित्य शिकारक हेतु प्रयाण ॥ 

मेध्य मेध्य मृग मारथि जाय । पिता निकट से देथि पठाय ।

उठि सबेर स्नानादिक कर्म । करथि सनातन जे कुल-धर्म्म ॥ 

राज काज कर आलस थोड़ । लागथि नित्य पिताकाँ गोड़ ॥ 

बन्धु सहित गुरु आज्ञा पाय । भोजन करथि तखन नित जाय ॥

धर्मशास्त्र विधि शुनि व्याख्यान | करथि सतत मन उत्तम ज्ञान ॥


॥ दोहा ॥

मानव- लीला करथि प्रभु, निर्गुण रहित विकार । 

जानथि ब्रह्मा प्रभृति नहि, विभु माया विस्तार ॥

इति श्री मैथिल चन्द्रकवि-विरचिते मिथिला-भाषा रामायणे तृतीयोध्याय: ।

मिथिला-भाषा रामायण - बालकाण्ड - चतुर्थोऽध्यायः


 ॥ अथ चतुर्थोऽध्यायः ॥

॥ चौपाइ ॥

कौशिक रामक दर्शन काज । गेला दशरथ नृपति समाज ॥

 दशरथ कयल तनिक सन्मान । मुनि वसिष्ठ सन गुरु मतिमान ॥ 

अपनैक सदृश जाथि जन जतय । संपति सकल पहुँच सच ततय ॥ 

बहुत कृतार्थ कएल मुनि आज । अभ्यागत सत हमर समाज ॥

कोन हे गुरु मुन संचार । कहल जाय करु तकर विचार ॥ 

शुनि मुनि कहल सुनिय महिपाल । कार्य्य उपस्थित ई एहि काल ॥ 

यज्ञारम्भ करी हम जखन । अबइत अछि राक्षस गण तखन ॥

 नाम सुबाहु तथा मारीच । दुह प्रधान अज्ञानी नीच ॥ 

यक्ष - विघ्न कारक अवतार । मरत ककर सक कयल विचार ॥ 

लक्ष्मण राम ततय जोँ जाथि । हिनक त्रास सौँ दुष्ट पड़ाथि ॥

देल जाय होयत कल्यान । रक्षा करत कहू के आन ॥ 

गुरु वसिष्ठ सौ करू विचार । अनुमति सुजस होयत संसार ॥ 

हौँ की नहि बजला भूप । हुनि मुनि आगाँ रहला चूप ॥ 

नृप एकान्त कहल निज आधि । मुनि-कृत बाढल बहुत उपाधि ॥ 

गुरु कहु करब कि देब न तनय ।कोधी मुनि मनता नहि विनय ॥ 

राम बिना नहि जीवन रहत । नहि जौँ देब लोक की कहत ॥ 

बहुत सहस गत भै गेल वर्ष । चारि तनय विधि देल सहर्ष ॥ 

सभ जन से छथि अमर समान । रामचन्द्र छथि हमरा प्राण ॥ 

जौ नहि देव देता मुनि शाप । हृदय हमर गुरु थर थर काँप ॥ 

कहु कर्त्तव्य उचित हो कर्म्म । हम सपनहु नहि करब अधर्म्म ॥ 

कहल वसिष्ठ सुनु महिपाल।  कि कहब अपनैँक भाग्य विशाल ॥ 

ई वृत्तान्त कतह नहि कहब । पुछलहु उत्तर सु- मौने रहब ॥

हरण हेतु भूभिक सभ भार ।  विधि प्रार्थित नर-वर अवतार ॥ 

नारायण छथि जानब राम।  चिन्मय सकल विश्व-विश्राम ॥

अँह कश्यप तप कयल अपार । अदिति थिकथि   कौशल्या दार ॥ 

भेला प्रसन्न देल वर-दान । पुत्र अहाँक भेला भगवान ॥ 

तनिकर माया सोता भेलि । मान्य मही मिथिलामे गेलि ॥ 

रामक होयत' ततय विवाह । कौशिक तेहि कारण अयलाह ॥ 

ई वक्तव्य कतहु नहि थीक । होयत नृपवर अहँइक नीक ॥ 

कौशिक पूजन करु दय चित्त । आएल छथि मुनि जनिक निमित्त ॥ 

लक्ष्मण सहित रामकाँ देव । सुयश विश्व भरि भूपति लेब ॥ 

कहल वसिष्ठ शुनल महिपाल । कृत-सुकृत्य आनन्द विशाल ॥

लक्ष्मण राम काँ भूप बजाय । वार वार उर कण्ठ  लगाय ॥ 

सजल नयन नृप दूनू भाय । कौशिक मुनि केँ देल सुमुझाय ॥।

रोता छन्द ॥

आनन्दित मुनि भेल नृपतिकाँ आशिष देलनि । 

राम सुमित्रा पुत्र दुनू जन संग कैँ लेलनि ॥ 

धनुष बाण तूणीर जुगल भ्राता करेँ धयलनि । 

मुनि-मण्डलि महि जाय सकल आनन्दित कयलनि ॥

॥ हरिपद ॥

चलइत बाट ताड़का दौड़लि कौशिक देल चिन्हाय । 

रघुवर शर मारल एक तनिकाँ जे मुनि-जनक बलाय ॥ 

बड़ पापिनि मुनि-प्राणक सुपिनि छलि करुणा सौँ रहिता । 

सिद्धाश्रम सङ्कटा मुइलेँ सुनि-मंडलि मुख-सहिता॥


॥ अनुष्टुप् छन्द ॥

बला अतिबला विद्या देव-निर्म्मित देल से। 

क्षुधा तृष्णादि- शान्त्यर्थ राम सानन्द लेल से ॥


॥ छन्द मालिका ॥

कण्ठ अङ्क लगाब । कौशिकादि साख्य पाब |

धन्य धन्य भूप - बाल । दुष्ट राक्षसीक काल ||


॥ पादाकुल दोहा ॥

विश्वामित्र चरित्र राम-कृत देखल प्रमुदित चित । 

मन्त्र सहित सर्वास्त्र राम काँ देलनि समर निमित्त ॥


॥ चौपाइ ॥

मुनि-संकुल कामाश्रम राम । एक राति कयलनि विसराम ॥ 

उठि प्रभात गेला मुनि सङ्ग । सिद्धाश्रम देखल भल रंग ॥

सब सौँ कहलनि विश्वामित्र । अतिथि एहन के आन पवित्र ॥ 

हिनकर पूजन मन दय करिअ । दुष्ट निशाचर-भय सौँ तरिअ ॥ 

विश्वामित्र कहल मुनि जेहन । रामक कयल से पूजा तेहन ॥ 

रामचन्द्र कौशिक आवेश । कहलनि दिक्षा करू प्रवेश ॥ 

राक्षस दुहु काँ दिअओ देखाय । सावधान हम दूनू भाय ॥ 

तेहन कयल तत मुनि-समुदाय ।  यज्ञारम्भ कयल मुनि जाय ॥ 

काम-रूप राक्षस दुहु फेरि । खल आयल मध्यान्हे बेरि ॥ 

तनिकाँ ज्ञात न दोसर सृष्टि  । शोणित हाड़ कयल खल वृष्टि ॥ 

रामचन्द्र दुइ शर सन्धानि । मारल दुष्ट निशाचर जानि ॥


॥ हरिपद ॥

रामचन्द्र-कर-धनुष- मुक्त-शर-परवश खल मारीच । 

शतयोजन घुमि मृतक सदृश जुमि खसला जलनिधि बीच ॥ 

ठामहि वीर सुबाहु भस्म भेल रघुवर मख रखबार । 

अति अद्भुत नर-वर रण-लीला अविकल सकल निहार ॥


॥ बरवा ॥

तदनुजायि अततायिकँ हनिहरी तीर । 

सभकेँ लक्ष्मण मारल बड़ रणधीर ॥


॥ रोला ||

पुष्प - वृष्टि सुर कयल देव दुन्दुभी बजाओल । 

जय-जय ध्वनि उच्चार सिद्ध-चारण गुण गाओल ॥ 

हर्षित विश्वामित्र ततय पूजा विधि कयलनि । 

सानुज श्रीरघुनाथ भक्ति सौँ हृदय लगओलनि ॥


इति श्री मैथिल चन्द्रकवि - विरचिते मिथिला भाषा रामायणे चतुर्थोध्यायः ।

मिथिला-भाषा रामायण - बालकाण्ड - पंचमोऽध्यायः


 ॥ अथ पंचमोऽध्यायः ॥

॥ चौपाइ ॥

तिन दिन प्रभु रहला ओ देश । कन्द मूल फल भोजन बेश ॥ 

कहलनि कौशिक कथा पुराण । पुरुष पुराण सहज सब जान || 

चारिम दिन कहलनि ओ राम । नव उत्सव मिथिलाधिप-धाम ॥ 

तिरहुति सन नहि दोसर देश । विज्ञानी मानी मिथिलेश ॥ 

थापित शंकर धनु तहि ठाम । अपनेहुँ काँ देखक थिक राम ॥ 

देख तनि मर्य्यादा जाय । जनक नृपति सौँ पूजा पाय || 

शुनि मुनि संग चलि लछमन राम । गंगा उतरि विदेहा नाम ॥ 

दिव्य फूल फल भल तरु पाँति । खग मृग रहिय भेल दिन राति ॥ 

मुनि केँ पुछलनि से देखि राम । एहि आश्रमक कहू की नाम ॥

अति आह्लादित करइछ चित्त । पुण्याश्रम की एहन  निमित्त ॥

विश्वामित्र कहल से शूनि ।  आश्रम छल छथि गौतम मूनि ॥ 

तप-बल सौँ तेजस्वी भेल । कन्या तनिकाँ ब्रह्मा देल ॥ 

नाम अहल्या तेहनि न आन । कयलनि विधि वनिता निर्म्मान ॥


|| रूपक दण्डक ||

न्याय सूत्र - कर्त्ता गौतम मुनि, ब्रह्मचर्य व्रतधारी, बड़ भारी । 

कोनहु लोक एहनि के सुन्दरि, तनिक अहल्या नारी, सुकुमारी ॥ 

वासव काम-विवश रस- लम्पट, रूप तनिक मन धारी, छलकारी ॥ 

गौतम आश्रम राति रहथि नहि, तिय पातिव्रत टारी, अव भारी ॥


॥ तीरभुक्ति-सङ गीतानुसारेण स्मरसन्दीपन कोडार छन्दः ॥

धाता लिखल जेहन भाल ।

से फल भेलैँ से पथ गेलैँ क्रमहिं कालेँ काल ।।

गमहि गमहि गौतम जखन गेहक निकट धाओल । 

परक कारन नरक परक तरक तेहन पाओल || 

देखल चरित बुझल दुरित दारक  मारक दोषे । 

शान्तिक पटल सकल हटल सटल अटल रोपे ॥


॥ रूपक दण्डक ॥

अति अनर्थ कर्त्ता कह के तोँ, शून्याश्रम सञ्चारी, हठकारी । 

क्षणमे दुष्ट भस्म हम कय देब, हमर रूप की धारी, छल भारी ॥ 

कहल इन्द्र अपराध कयल हम, कामक भेलहुँ दासे, मति नाशे । 

विधिक पुत्र ! करु क्षमा इन्द्र हम, सकल लोकमे हासे, अति, त्रासे ॥


॥ हरिपद ॥

इन्द्रक वचन शुनल जेहि खन मुनि कोप लाल बड़ आँखि । 

भग हजार टा तनमे होयतहु उठला गौतम भाखि ॥ 

आश्रम जाय अहल्या देखल कपइत जोड़ल हाथ । 

मिथ्यालाप शाप डर कयल न रहल उपाय न लाथ ॥


॥ चैपाई ॥

गौतम कहल रहह गय जाय । पापिनि पाथर भितर समाय  ॥

जल जनु पीबह अन्न न खाह । आश्रम छाड़ि कतहु जनु जाह ॥ 

जन्तु मात्र सौँ आश्रम हीन । होएतहु यावत पातक क्षीण ॥ 

दिवारात्रि तप करह सहिष्णु । हृदय ध्यान परमेश्वर विष्णु ॥ 

राम राम मन मनसे कहब | बहुत सहस वत्सर एत रहब ॥ 

जखन होयत रामक अवतार | हरण हेतु अवनिक सभ भार ॥ 

सानुज से एहि आश्रम आबि । तोर भल करता ई अछि भावि ॥ 

पाथर परसहि रामक चरण | तोहरा अभय दुरितचय-हरण ॥ 

तनिकर पूजन भक्ति प्रणाम । लोचन- गोचर प्रभुवर राम ॥

सेवा हमर पूर्व्व सम करब । कोक समान संग सञ्चर ॥ 

ई कहि गेला मुनि हिमवान । आश्रम भै गेल आनक आन ॥ 

गेलथिनि गौतम एतहि राखि ।  हिनका दोसर देखथि न आँखि ॥

अपनैक चरणक चाहथि धूरि । हिनकर दुःख - निकर करु दूरि ॥ 

कौशिक रामक धय लेल हाथ । करु उद्धार देव रघुनाथ ॥ 

विधि- तनयाक विपत्ति तति-हरण । परस भेल तहि पाथर चरण ॥ 

अपन रूप पाओल तहि ठाम । तनिकर राम कयल परनाम ॥ 

दशरथ - तनय राम थिक नाम । ब्रह्म-पुत्रि अयलहुँ एहिठाम || 

से देखल पीताम्बर वीर । लक्ष्मण सहित हाथ धनु तीर ॥ 

स्मित मुख-पंकज पंकज-नयन । श्रीवत्सांकित शोभा-अयन || 

वर - माणिक्य - कान्ति श्रीराम । देखि अहल्या आनन्द-धाम ॥ 

हर्ष लेल लोचन बड़ गोट । तन रोमाञ्च प्रपञ्च न छोट ॥ 

मन पड़ि आएल गौतम कहल । कर लगली परमेश्वर टहल ॥

कहत बाढ़ विपुल रस्व - भंग । हर्ष न अटय अहल्या  अंग ॥


॥ गीत ||

हमर गति अपनैँ सौँ के आनअ । 

करुणागार दीन-प्रति- पालक रामचन्द्र भगवान । 

पिता विधाता घुरि नहि तकलनि पति-मति भेलहु पषान॥

सुरपति कुमति विदित भेल कतए न हम अबला की ज्ञान । 

जन्तु मात्र सौँ वज्जित आश्रम नहि भोजन जल पान ॥ 

वरष हजार बहुत एत गत भेल रामचरण मे ध्यान । 

सगुण ब्रह्म अपनैकाँ देखल निर्गुण मन अनुमान ॥ 

चन्द्र सुकवि भन लाभ एहन सन त्रिभुवन शुनल न कान ॥


॥ गीत पुनः ॥

हमर सन भाग्यवन्ति के नारि। 

निर्गुण ब्रह्म सगुण बनि अएलहुँ अपनहि सौँ असुरारि ॥ 

अपनेक चरण सरोज सौँ सुरसरि उतपति पावन वारि । 

सकलो तीर्थक मूल चरण से देखल आँखि पसारि ॥ 

जे चरणक धूली लय घन्धित रहथि देव त्रिपुरारि । 

से धूलीक प्रकट फल पाओल कर्म्म शुभाशुभ जारि ॥

रामभन्द्र कहलनि सुनु शुभमति अहँक हाथ फल चारि 

हमर भकि अहँकाँ से होएत सकल सिद्धि देनिहारि ॥


॥ सङ्गीते सूहव नाम छन्दः ॥

श्रीमन्नारायण विष्णो ।

शापादुद्धर शापादुद्धर दुद्धरै दनुज विष्णो ॥ 

विधेर्व्विधे दयानिधे विधेरहं कन्या । 

तपस्विनी मनस्विनी यशस्विनी धन्यधन ॥ 

आसं दैवाद्दुराचारा मारद्वारा जाता । 

कष्टस्थाने भवानेव प्रभो विभो त्राता ॥

इति श्री मैथिल चन्द्र कवि विरचिते मिथिला भाषा - रामायणे पञ्चमोऽध्यायः ।