॥ अथ चतुर्थोऽध्यायः ॥

॥ चौपाइ ॥

कौशिक रामक दर्शन काज । गेला दशरथ नृपति समाज ॥

 दशरथ कयल तनिक सन्मान । मुनि वसिष्ठ सन गुरु मतिमान ॥ 

अपनैक सदृश जाथि जन जतय । संपति सकल पहुँच सच ततय ॥ 

बहुत कृतार्थ कएल मुनि आज । अभ्यागत सत हमर समाज ॥

कोन हे गुरु मुन संचार । कहल जाय करु तकर विचार ॥ 

शुनि मुनि कहल सुनिय महिपाल । कार्य्य उपस्थित ई एहि काल ॥ 

यज्ञारम्भ करी हम जखन । अबइत अछि राक्षस गण तखन ॥

 नाम सुबाहु तथा मारीच । दुह प्रधान अज्ञानी नीच ॥ 

यक्ष - विघ्न कारक अवतार । मरत ककर सक कयल विचार ॥ 

लक्ष्मण राम ततय जोँ जाथि । हिनक त्रास सौँ दुष्ट पड़ाथि ॥

देल जाय होयत कल्यान । रक्षा करत कहू के आन ॥ 

गुरु वसिष्ठ सौ करू विचार । अनुमति सुजस होयत संसार ॥ 

हौँ की नहि बजला भूप । हुनि मुनि आगाँ रहला चूप ॥ 

नृप एकान्त कहल निज आधि । मुनि-कृत बाढल बहुत उपाधि ॥ 

गुरु कहु करब कि देब न तनय ।कोधी मुनि मनता नहि विनय ॥ 

राम बिना नहि जीवन रहत । नहि जौँ देब लोक की कहत ॥ 

बहुत सहस गत भै गेल वर्ष । चारि तनय विधि देल सहर्ष ॥ 

सभ जन से छथि अमर समान । रामचन्द्र छथि हमरा प्राण ॥ 

जौ नहि देव देता मुनि शाप । हृदय हमर गुरु थर थर काँप ॥ 

कहु कर्त्तव्य उचित हो कर्म्म । हम सपनहु नहि करब अधर्म्म ॥ 

कहल वसिष्ठ सुनु महिपाल।  कि कहब अपनैँक भाग्य विशाल ॥ 

ई वृत्तान्त कतह नहि कहब । पुछलहु उत्तर सु- मौने रहब ॥

हरण हेतु भूभिक सभ भार ।  विधि प्रार्थित नर-वर अवतार ॥ 

नारायण छथि जानब राम।  चिन्मय सकल विश्व-विश्राम ॥

अँह कश्यप तप कयल अपार । अदिति थिकथि   कौशल्या दार ॥ 

भेला प्रसन्न देल वर-दान । पुत्र अहाँक भेला भगवान ॥ 

तनिकर माया सोता भेलि । मान्य मही मिथिलामे गेलि ॥ 

रामक होयत' ततय विवाह । कौशिक तेहि कारण अयलाह ॥ 

ई वक्तव्य कतहु नहि थीक । होयत नृपवर अहँइक नीक ॥ 

कौशिक पूजन करु दय चित्त । आएल छथि मुनि जनिक निमित्त ॥ 

लक्ष्मण सहित रामकाँ देव । सुयश विश्व भरि भूपति लेब ॥ 

कहल वसिष्ठ शुनल महिपाल । कृत-सुकृत्य आनन्द विशाल ॥

लक्ष्मण राम काँ भूप बजाय । वार वार उर कण्ठ  लगाय ॥ 

सजल नयन नृप दूनू भाय । कौशिक मुनि केँ देल सुमुझाय ॥।

रोता छन्द ॥

आनन्दित मुनि भेल नृपतिकाँ आशिष देलनि । 

राम सुमित्रा पुत्र दुनू जन संग कैँ लेलनि ॥ 

धनुष बाण तूणीर जुगल भ्राता करेँ धयलनि । 

मुनि-मण्डलि महि जाय सकल आनन्दित कयलनि ॥

॥ हरिपद ॥

चलइत बाट ताड़का दौड़लि कौशिक देल चिन्हाय । 

रघुवर शर मारल एक तनिकाँ जे मुनि-जनक बलाय ॥ 

बड़ पापिनि मुनि-प्राणक सुपिनि छलि करुणा सौँ रहिता । 

सिद्धाश्रम सङ्कटा मुइलेँ सुनि-मंडलि मुख-सहिता॥


॥ अनुष्टुप् छन्द ॥

बला अतिबला विद्या देव-निर्म्मित देल से। 

क्षुधा तृष्णादि- शान्त्यर्थ राम सानन्द लेल से ॥


॥ छन्द मालिका ॥

कण्ठ अङ्क लगाब । कौशिकादि साख्य पाब |

धन्य धन्य भूप - बाल । दुष्ट राक्षसीक काल ||


॥ पादाकुल दोहा ॥

विश्वामित्र चरित्र राम-कृत देखल प्रमुदित चित । 

मन्त्र सहित सर्वास्त्र राम काँ देलनि समर निमित्त ॥


॥ चौपाइ ॥

मुनि-संकुल कामाश्रम राम । एक राति कयलनि विसराम ॥ 

उठि प्रभात गेला मुनि सङ्ग । सिद्धाश्रम देखल भल रंग ॥

सब सौँ कहलनि विश्वामित्र । अतिथि एहन के आन पवित्र ॥ 

हिनकर पूजन मन दय करिअ । दुष्ट निशाचर-भय सौँ तरिअ ॥ 

विश्वामित्र कहल मुनि जेहन । रामक कयल से पूजा तेहन ॥ 

रामचन्द्र कौशिक आवेश । कहलनि दिक्षा करू प्रवेश ॥ 

राक्षस दुहु काँ दिअओ देखाय । सावधान हम दूनू भाय ॥ 

तेहन कयल तत मुनि-समुदाय ।  यज्ञारम्भ कयल मुनि जाय ॥ 

काम-रूप राक्षस दुहु फेरि । खल आयल मध्यान्हे बेरि ॥ 

तनिकाँ ज्ञात न दोसर सृष्टि  । शोणित हाड़ कयल खल वृष्टि ॥ 

रामचन्द्र दुइ शर सन्धानि । मारल दुष्ट निशाचर जानि ॥


॥ हरिपद ॥

रामचन्द्र-कर-धनुष- मुक्त-शर-परवश खल मारीच । 

शतयोजन घुमि मृतक सदृश जुमि खसला जलनिधि बीच ॥ 

ठामहि वीर सुबाहु भस्म भेल रघुवर मख रखबार । 

अति अद्भुत नर-वर रण-लीला अविकल सकल निहार ॥


॥ बरवा ॥

तदनुजायि अततायिकँ हनिहरी तीर । 

सभकेँ लक्ष्मण मारल बड़ रणधीर ॥


॥ रोला ||

पुष्प - वृष्टि सुर कयल देव दुन्दुभी बजाओल । 

जय-जय ध्वनि उच्चार सिद्ध-चारण गुण गाओल ॥ 

हर्षित विश्वामित्र ततय पूजा विधि कयलनि । 

सानुज श्रीरघुनाथ भक्ति सौँ हृदय लगओलनि ॥


इति श्री मैथिल चन्द्रकवि - विरचिते मिथिला भाषा रामायणे चतुर्थोध्यायः ।