॥ श्री गणेशाय नम: ॥

मिथिला-भाषा रामायण

॥ बालकाण्ड ॥

सरसमधुसुधातो गद्यपद्यन्नवीनं
वचनजनिधरायाश्शारदाया अधीनम्‌ ।
सकलजननमस्यास्सन्नमस्यन्ति यस्याः
पदयुगलमतोऽस्या नौमि नित्यं सुभक्‍त्या ॥१॥

वन्‍दे वारणवदनं विघ्नध्वान्तणाशने सूरम्‌ ।

शाङ्करिमतुलोदारं विधिगणशरणं गुणातीतम्‌ ॥२॥


॥ चौपाइ ॥।

वन्‍दे गिरिपति-कन्याकातं । अप्रमेयमगणितगुणशान्तं ॥
राजत-भूधर-द्यु ति-हर-भासं। श्रितकेलासं जगन्निवासं ॥
भुक्तिमुक्तिदं गणपति-तातं। परमोदारतया विख्यातं ॥
श्रीपतिरवनिभारसंहर्त्ता । सेव्यो विभूः स्वतन्त्र:  कर्त्ता॥
कर्त्तुरीप्सितं कर्म्म च येन। मखमवता प्रभुतातस्तेन ॥
तस्मे नमो यतो निर्भीताः। मुनयो भूवन-शान्तये प्रीता: ॥
भक्‍त्या तस्य च नामस्मरणे । मरणे भयमपि नान्‍तःकरणे ॥
हे रघुनन्दन दुर्गति-खण्डन। पालय मां दिनकर-कुलमण्डन ॥


श्रीमन्महीजनिमहो-जनि-जानिगीतिं

                   वैदेह-देश-वचसा रुचिरां सुरीतिम् ।

रामायणीय-चरितस्य सदर्थधारां

                        चन्द्र: प्रगृह्य वितनोति शुभैकसाराम् ॥ ३॥


जनुरिह मम जातं जानकी-जन्मभूमौ

                  बुधसदसि निवासात्प्राप्तविद्यस्य सौख्यं ।

अनुभवत उदार-श्रीललक्ष्मीश्वरैश्शं

                        शृणुत शृणुत धीरा: श्रीलचन्द्रस्य वाचम्‌ ॥४॥


इह जगति यदस्ति स्थावरं जंगमं य-

               त्तदतिशयनमस्यं ब्राह्मतो नापि भिन्नम् ।

भवति भवतु लोके सत्कथायाः प्रचारो

                   जनकनृपति-पुत्री-मातृभाषाञ्चितायाः ॥५॥


॥ चौपाइ ॥

शौनक पुछल कहल भल सूत । अति आनन्द मगन मन पूत ॥
नारद जोगी पर उपकार । करक हेतु सञ्चर संसार ॥
सत्य लोक मुनि पहुचल जखन । देखल विरञ्चिक वैभव तखन ॥
जनिकर सिरिजल सब संसार । तनिक विभव के वरनय पार ॥
बाल दिवाकर सन छवि भास । मार्कण्डेय प्रभृति तट वास ॥
स्तुति करइत छलछथि छल हीन । ककरहु ततय देखल नहि दीन ॥
ब्रह्मा संग शारदा दार। सकल अर्थ जानल व्यवहार ॥
देव चतुर्मुख विश्वक नाथ । तनिका नारद जोड़ल हाथ ॥
भक्ति दण्डवत चरण प्रणाम । कयलनि स्तुति वचनै अभिराम ॥
तुष्ट कहल तनिका खग-केतु । कहु नारद अयलहुँ को हेतु ॥
कहलनि नारद देव समाज । अयलहुँ प्रभू अछि बड़ गोट काज ॥
सकल शुभाशुभ गे किछु रहल । हमरा अपनै  पूर्व्वहि कहल ॥


।। दोहा ।।

कहू कृपा कय भय-हरण, सम्प्रति अछि श्रोतव्य ।
कमलासन मङ्गल-करण, दुष्ट समय भवियव्य ॥


॥ चौपाई ॥ 

होयत कलियुग जखना घोर। सभ जन लम्पट सभ जन चोर ॥
सत्य कथा ककरहु नहि नीक। दुराचार रत मन सबहीक ॥
पर अपवाद मध्य मन निरत । पर-घनमे अभिलाषा फिरत ॥
आनक वनितामे मन सटल । पर हिंसाक परायण  पटल ॥
आत्मा भिन्न देह नहि जान। नास्तिक गति मति पशुक समान ॥
माय बापमे द्वेष अलेख । अपनेँ संसारी सुख देख ॥
वनिता बुझत देव समान । कामक किङ्कर  कुत्सित ज्ञान॥
ब्राह्मणकाँ बाढ़त बड़ लोभ । वेदक विक्रय नहि मन क्षोभ ॥
धनक उपर्ज्जनेँ व्याकुल चित्त । विद्या पढ़ता मोह निमित्त ॥
सभ जन त्यागत निज निज जाति । वञ्चचक व्यवहारी दिन राति ॥
क्षत्रिक वैश्य स्वधर्म्मक  त्याग । करता कि कहब तनिक अभाग ॥।
नीचक उन्नति हयत अपार । शूद्र-निरत ब्राह्मण आचार ॥
बहुतो होइति धृष्टा नारि । पतिकाँ विपति देति कत गारि ॥
श्वशुरक मन्द-कारिणी हयति । स्वेच्छा सुपथै कुपथमे जयति ॥;
तनिकाँ सबहिक की गति हयत । जखना ई परलोक में जयत ॥
कहल जाय की तकर उपाय । सभ ज्ञाता विधि नाम कहाय ॥
शुनि मुनि कथा विरञ्चि उदार । ई भल कथा कयल सञ्चार ॥
भल अहँ पुछल कहै छी नीक । शुभ गति कारक ज सबहाक ॥
एक समय गिरिराज कुमारि । राम-तत्व पूछल  त्रिपुरारि ॥
भक्ति-वत्सला विनयक धाम । बूझल कथा चित्त विसराम ॥
विश्वजननि नित पूजन करथि । लोचन मन आनन्दित धरथि॥
लोकक जखन होयत गय भाग । रामायणक बढ़त अनुराग ॥
पढ़इत नर सदगतिमे जयत । जिबइत पूर्ण मनोरथ हयत ॥
एकादशि तिथि कय उपवास । सभा रमायण करथि प्रकास ॥
वर्ण वर्ण गायत्री जेहन । पुरश्चरण फल पाबथि तेहन ॥
राम-नवमि दिन कर उपवास । रात्रि जागरा मन उल्लास ॥
कुरक्षेत्र तीर्थाद निवास । सूर्य्य-ग्रहणमे पाप विनाश ॥
आत्मतुल्य धन द्विजकाँ देथि । व्यासक सम द्विज दान से छेथि॥
तनिकाँ से फल लाभ अनन्त । सत्य कहल छल गिरिजा-कन्त ॥
प्रति दिन रामायण कर गान । सुरपति आज्ञा तनिकर मान ॥
रामाथणक कथा बड़ गोटि। पढ़लय फल पाबि गुण कोटि॥
हनुमानक प्रतिमाक समीप । राम हृदय शिव मानस दीप ॥
तीनि बेर मौनी जँ पढ़ल । पूर्ण मनोरथ सुखचय बढ़त ॥


॥ सवैया ॥

करथि प्रदक्षिण पीपर तुलसिक, राम हृदय पढ़इत जे भक्त ।

ब्रह्मघात पातक सभ छुटय, भक्ति भावना मन अनुरक्त ॥


॥ चौपाइ ॥

कहल महात्मा राम-गीताक । जानथि एक कान्त गिरिजाक ॥

तकर आधा गिरिजा पुन जान । तकर आधा हमरा अछि ज्ञान ॥

से हम किछु कहइत छी आज । सावधान सुनु सकल समाज ॥

जनितहिँ मन निर्म्मल भय जाय । श्रीपत्ति गीता देल पढ़ाय ॥

उपनिषदुदधिक मन्‍थन कयल । गीता-सुधा राम से धयल ॥॥

से लक्ष्मणकाँ कहि देल कान । अमर भेला से शुनि से ज्ञान ॥


॥ रूपमाला ॥

धनुर्विद्या पढ़य कारण शैलजेश समीप ।

                           कार्त्तवीर्य्यक नाश-कारण  पूर्व्व भृगुकुल-दीप।

पार्व्वती ओ शम्भुकाँ से छल कथा संवाद।

                        शुनल धारण कयल मनमे भेल अति आह्लाद।

ब्रह्महत्या आदि पातक शीघ्र होथ विनास।

                       राम-गीता पाठसोँ मन भक्तिसोँ एक मास।

दुःप्रतिग्रह निन्द्य भोजन असद्भाषण पाप।

                        नाश हो एक मास पढ़लोँ रामचरित्र प्रताप।


॥ नरेन्द्र दोबय हरिपद ॥

शालग्राम तुलसी यति सन्नीधि गीता पाठ जे करथी।

वचन अगोचर से फल पाबथि भव जलनीघधि से तरथी।

नीराहार एकादशि दीनमे द्वादशि संयम कारी ।

वृक्ष अगस्तीक नीकट वासकर तनिकर फल बड़ भारी।

जानि लेब तनिकाँ रघुनन्दन सकल देव कर अर्च्चा।

जीवन्मुक्त भक्तिसौँ संयुत यम घर तनिका न चर्च्चा।

विना दान सौँ विना ध्यान सौँ विना तीर्थ मे गेले।

राम गीत अध्ययन मात्र मे फल अनन्त अछि धैले।

शुनु मुनि नारद बहुत कहब की श्रुत्तिस्मृति सकल पुराणे ।

रामायणक कथा तुलना नहि ई गीत अछि किछ आने।


॥ हरिपद ॥।

कमलासन नारद सौँ कहलनि रामायण तहिठाम।

श्रद्धासौँ पढ़ि सुनि जन जायत सुर पूजित हरिधाम ।


॥ चौपाई ॥

पृथिवी काँ बाढ़ल बड़ भार । चिन्मय पुरुष लेल अवतार ॥

कयल प्राथना ई सुर-लोक । कहलनि धरणी काँ बड़ शोक॥

पृथवी मे रघुकुल अवतार । धय प्रभू हरलनि पृथिवी भार॥

पुन ब्रह्मत्व पदहि चल गेल । पाप विनाशि वृहत यश  भेल॥

जानकि-नाथक करिय प्रणाम । भुक्ति-मुक्तिप्रद जनिकर नाम ।

कारण उत्पत्ति स्थिति नाश । माया-बाहर माया-वास ।।

मूत्ति अचिन्त्य सान्‍द्र आतन्द । अमल सुबोध-रूप सुख-कन्द ॥

विदित-तत्व सीतेश प्रणाम । हम करइत छी मन सुख काम॥।

पढ़ शुन नित्य रामायण जैह । सकल पाप हर गुणमय सैह॥

नारायण पद सुख सौँ जयत । तनिकाँ कष्ट लेश नहि हयत ॥।

जौँ इच्छित भव बन्धन मुक्ति । पाठ रामायण अंछ बड़ युक्‍ति॥

कोटि-कोटि जे कर गोदान । से फल सम जे पढ़ इ पुरान॥

पुरब समय शिव विश्व-निवास । छल छथि बसइत गिरि कैलास ॥

मणि सिंहासन बैसल ध्यान। यति-वर एहन दोसर के आन॥

सिद्ध संघ सौँ सेवित चरण । अभय त्रिनेत्र सकल अघ हरण ॥

गिरिजा प्रश्न कयल तहि ठाम । वास जनिक शंकर तन वाम ॥

हे परमेश्वर जगन्निवास । सकल चराचर अहँक विलास ॥

कय प्रणाम हम पूछिअ सैह । परम इष्ट अपनैँ काँ जेह ॥

भक्त छड़ि अनका नहि कहथि । बुध विज्ञानि लोक जे रहथि ॥।

ईश्वर अपनैँक ईश्वर राम । जनिक जपैत रहैछी नाम ॥

स्त्री स्वभाव सौँ पूछल फेरि । राम तत्त्व विभु कहु एक बेरि॥

मानुष रूपक धारण कयल। दशरथ नृपक पुत्र  बनि अयल॥

तृण दिव्यास्त्र जयन्तक बेरि । शिव धनु तोड़ल तृण सम फेरि॥

गौतम-गोहिनि छलि पाषाण । तनिकर कयल राम कल्याण ॥

अगम जलधि मे बाँधल सेतु । बानर  योधा रावण हेतु ॥

मानुष रूप अमानुष काज । एक कथा पुछइत हो लाज ॥

निर्ग्गुण ब्रह्म सगुण अवतरल । दुष्टभार धरणिक सभ हरल॥

जनिकाँ सुख लेश” न व्याप । सीता-कारण कयल विलाप॥


॥ रोला छन्द॥

पुछल भक्ति सौँ जखन कथा ई गिरिवर-कन्या।

                अति प्रसन्न शिव कहल प्रिया अपनै अति धन्या ॥

जनु मयूर आनन्द मेघ-माला घुनि शुनि शुनि।

                रामचन्द्र काँ कय प्रणाम-तनि तत्त्व कहल पुनि ॥

प्रकृतिहुँ पर छथि अनादि पुरुषोत्तम रामे।

                अद्वितीय आनन्द सकल कारण विश्रामे ॥

तनिके सभ चैतन्य दृश्य सकलावच्छिन्ने

                        लिप्त कतहु नहि होथि गगनवत पुन से भिन्ने ॥

सृष्टि सकल व्यवहार करथि जनिकर वर माया।

                    मिथ्या सत्य प्रतीति यथा जल गगनक छाया ॥।

विषयी जन काँ भास दोष सौँ दुषित दृष्टी ।

                उत्तर दक्षिण कहथि विपर्य्यय भय गेल सृष्टि ॥

होइछ दिवा न रात्रि भानु काँ गिरिजा जहिना।

                    नहि तम सम अज्ञान राम चिद्घन रवि तहिना॥

जाग्रत्स्वप्न सुषुप्ति सकल साक्षी से निष्फल।

                तनिकर सेवा विना जन्म काँ मानब निष्फल।


॥ चौपाइ ॥

कति बेरि राम लेल अवतार । कति बेरि हरलनि अवनी भार॥

ओ रमायण अछि शत कोटि । ब्रह्मलोक महिमा बड़ि गोटि॥

सबल सपुत्र दशानन मारि। धरणी भार सकल देल टारि॥

मारुत तनय  प्रभृति महावीर । ज्ञान भक्ति शुरत्व गभीर॥

सीता लक्ष्मण कपिपति सहित । अयला निजपुर विधि शिव सहित ॥।

गुरु वसिष्ट विधि सौँ अभिषेक । पाओल राज्य राम नृप एक।।

सिंहासन संस्थित महिपाल । कोटि सुर्य्यसम कान्ति विशाल।॥।

अञ्जनि-सुतकाँ भक्ति न थोड़ि । आगाँ ठाढ़ भेल कर जोड़ि॥

प्रभु जानथि हनुमानक धर्म्म । अतिशय अद्भुत हिनकर कर्म्म।।

लोभक रहित कयल सभ काज । ज्ञान चहै छथि से पुन आाज।॥

शुनु वैदेही कहिऔनि ज्ञान। अधिकारी सेवक हनुमान ॥

हमरहि निकट सुचित भय रहिय । हमर तत्त्व हिनका अहँ कहिय ॥

वैदेही प्रभु आज्ञा पाय । कथा कहल हनुमान बुझाय।॥।


॥ सोरठा ॥

जानब अहँ हनुमान, परब्रह्म श्रीराम काँ।

ई निश्चय करु ज्ञान, मूल प्रकृति हमहीँ थिकहूँ ॥

उद्भव पालन नाश, हमहिँ स्वतन्त्रा कारिणी ।

हमरहु हुनके आश, तनिके सन्निधि मुख्य बल ॥


॥ चैपाइ॥

राम अयोध्या वर रघुवंश । जन्म लेल शिव मानस हंस॥

मुनि मख रक्षा भेलनि तखन। कौसिक मुनि संग गेला जखन॥

छली अहल्या पाथर भेलि । शाप छुटल उत्तम गति गेलि॥

जनक-पूरी मे शिव धनु भंग । कयलनि बहु विधि सज्जन संग॥

परिणय हमर भेल प्रभू सँ । परशुराम अयला भल रंग॥

परिचय पाबि गेला तप भूमि । क्षत्रिय अरि नहिं भेला घूमि।। 

बास अयोध्या बारह वर्ष । नित नव नव अनुभव हिअ हर्ष ॥

केकयि कहल भेल वनवास । दशरथ छोड़ल जीवन आश॥

चित्रकूट सौँ दण्डक गहन । कयल निवास बहुत दुख सहन॥

निधनि विराध तथा मारीच । यति बनि आयल रावण नीच॥

मोक्ष कबन्‍धहुकाँ भेल तेहन । मुनि लोकहुकाँ दुर्ल्लभ जेहन ॥

शवरी भक्ति सूपूजन कयल । तनिकाँ मुक्ति युक्‍ति छल धयल॥

सुग्रीवक संग मैत्रीकरण । तनिक हेतु बालिक भेल मरण॥

सीतान्वेषण कपषि प्रस्थान । लंका दग्ध कयल हनुमान॥

रावण काँ रण मारण हेतु । बाँधल गेल समुद्रहुँ सेतु॥

लंका घेरल बजरल मारि। रावण मरण सुरण मे हारि॥

तनिकर पुत्र प्रभृति नहि रहल। बहुत अवज्ञा प्रभुवर सहल॥

देल बिभीषण  जनकाँ राज। प्रभुवर शरण धयल निर्व्याज॥

पुष्पक चढ़ि प्रभु हमरा सहित। जनपद अयला अरिसौँ रहित॥

राजा राम नाम अभिषेक। कहल कथा संक्षेप विवेक॥

सकल कयल हमहीँ सब कर्म्म। ज्ञानी जानथि एकर मर्म्म॥

निर्व्विकार अखिलात्मा राम। ई आरोप कि तनिका ठाम॥


॥ सोरठा ॥

सुनि गिरिजा वृत्तान्त, महादेव कहलनि कथा।

तखना सीताकान्‍त, मारुतनन्दन सौँ कहल ॥


॥ दोहा ॥

यथा जलाशय त्रिविधि नभ, देथि पड़ै अछि जैह ।

महाकश हृद मे तथा प्रतिबिम्बहु मे सैह॥

एक पूर्ण चेतन्य मे जीव भ्रम आरोप।

त्रिगुणा मायाकृति सकल, तत्त्वज्ञान सैँ लोप॥

तत्वमसि प्रभृतिक श्रुतिक, महावाक्य सौँ ज्ञान।

निश्चय मन भेलैँ तहाँ, ब्रह्म जीव नहि आन॥

मननशील जे हमर जन, जानि जाथि मद्भाव।

ज्ञान विना हो मोक्ष नहि, बहुत जन्म जौँ पाब॥

ई रहस्य अहँ काँ कहल, हम अपनहिँ शुभ ज्ञान।

भक्तिहीन काँ देब नहि, जौँ हो इन्द्र समान॥


॥ चैपाइ॥

 गिरिजा शंकर काँ संवाद । रघृपति हृदयक बड़ मर्य्याद॥

 ई गोट पढ़लए रहए न पाप। गोपनीय थिक प्रबल प्रताप॥

 पढ़थि भक्तियुत जे मन लाय। ब्रह्म-बधादिक पाप मेटाय॥

 बहुजन्मार्ज्जित पापक नाश । यमक यातना कृत नहि त्रास॥


 ॥घनाक्षरी॥

जाति पाति नष्ट भ्रष्ट पापी पर-धन-रत बह्मघाती उतपाती

मित्रजन नासी जे। कुल मे कलंकि ओ कुलघ्न हेमचोर चढ़ योगिवृन्द-

अपकारी धर्म्म मे उदासी जे ॥ रामचन्द्र पूजिकै करय जे हृदय-पाठ

योगीन्द्र अलम्य पदहीक होथि वासी से । 'चन्द्र' भन सर्व्व लोक विजयि 

विभृतिमान पड़थि न कदापि कठोर जम फाँसी से ॥।

 इति श्री मैथिल चन्द्रकवि-विरचिते-मिथिला-भाषा रामायणे प्रथमोऽध्यायः।