॥ चौपाइ ॥
शिव शिव कहल शुनल हम कान । रामायण वर अमृत समान ॥
पिबइत पिबइत तृप्ति न भेल । भव सन्ताप सकल चल गेल ॥
धन्य भाग्य थिक मन मे गुणल । रामतत्व संक्षेपहि शुनल ॥
कयल अनुग्रह संशय छुटल । अपनेसौँ शुनि रामक पटल ॥
शुनब कथा सम्प्रति विस्तार । कहु कहु प्रियतम परम उदार॥
अति आनन्द शम्भू शुनि चित । राम-चरित दुखहरण निमित्त ॥
पूर्व्व काल हमरा गुणधाम । कहलेँ छल छथि अपनहि राम ॥
संप्रति हम कहइत छी सैह । दुख अज्ञान निवारक जैह ॥
चिरजीवी सन्तति अति ऋद्धि । श्रोता हाथ सकल गोट सिद्धि॥
॥ दोवय छन्द ॥
एक समय भयदीना अवनी भारेँ व्याकुल भेली ।
सुरभिरूप बनि कनइत कनइत धाम विरञ्चिक गेली॥
सकल देवगण तनिकाँ संगे पुछलनि विधि कहु धरणी।
सञ्च सत्य से सबटा कहलनि दुष्ट दशानन करणी ॥
॥ चौपाइ ॥
यजन सुजप मुनि तप जे करथी। तनिकर राक्षस प्राणे हरथी॥
हरि हरि अनइछ अनकर नारि। डरसौँ के कर हुनि सौँ मारि॥
थर थर काँपथि सब दिकपाल । रावण जनमल भल-जन-काल ॥
घारण धर्म्म देल समुझाय । भार अपार सहल नहि जाय ॥
सकल दु:ख हम देल जनाय । अपनहि बुड़लै युग बुड़ि जाय॥
जौँ अपने नहि टारब भार । होयत अकालहि लय संसार ।॥
कमलासन शुनि ध्यानवस्थ । सकल देवगण छला तटस्थ॥
कहलनि विधि चलु हमरा संग । अहँक दुःख सब होयत भंग॥
क्षीरसमुद्र तीर मे जाय। ब्रह्मा बैसला ध्यान लगाय॥
स्तुति कयलनि पढ़ि श्रुति सिद्धान्त । जय नारायण लक्ष्मीकान्त ॥
स्तोत्र पढ़ल जे पठित पुराण । गद गद वचन परम विज्ञान॥।
हर्षक नोर बहल जलाधार । प्रभु प्रसन्न भेल करुणागार॥
जोति-प्रकाश भानु सम भेल । श्रीनारायण दर्शन दल ॥
इन्द्रनीलमणि छविमय अंग । स्मित-मुख लोचन पङ्कज रंग।॥।
हार किरीट तथा केयूर । कटकादिक शोभा भरि पूर॥
श्रीवत्सान्वित कौस्तुमभ राज । सनकादिक स्तुति करिथ समाज ॥
पार्षदलोक सकल - छल ततय । प्रकट भेला (ह) पुरुषोत्तम जतय॥
शंख रथाङ्ग गदा जलजात । कनक-जनौ कनकाम्बर गात॥
लक्ष्मीसहित गरुड़पर चढ़ल । देखितहि विधि मन आनन्द बढ़ल॥
॥ वानिनी छन्द ॥
शत शत शतत नमस्कार देवदेव आजे।
दीना पृथिवीक दुष्टभारनाश काजे ॥॥
अपनैक त्रिगुणात्म सृष्टि सर्व्वमान्य माया।
रचना-प्रतिपाल-नाश-कारिणी अकाया ॥१॥
निर्गुण सगुणावतार भूमि-भार-हर्त्ता ।
स्वेच्छासौँ एकसौँ अनेकरूप धर्त्ता॥
संसृति-जलराशि-तरण नावकल्प भक्ति।
सकल-पदार्थदा अनन्तसारशक्ति ॥२॥
॥ चौपाइ ॥
स्तुति करइत विधिकाँ विभु कहल। अपने सबहि दुःख बड़ सहल॥
विधि कहु की करु हम उपकार । शुनि विधि मत भेल हर्ष अपार ॥
परमेश्वर शुनु रावण नाम । राक्षसेन्द्र बस लङ्का-धाम ॥
ओ पौलस्त्यक तनय भहान । संप्रति दुष्ट एहन नहि आन॥।
हम वर देल भेल अन्याय । हमरहि सबकाँ भेल बलाय।॥
के कह तनिका नीति बुझाय । उचित न बिरनी-बृन्द जगाय।॥
तीनि लोक मे से के लोक । जनिका रावण देल न शोक ॥
एक गोट अछि तनि मे आश । मानुष हाथेँ तनिक विनाश ॥।
राखल जाय देव संसार । अपनै धरु नर-वर अवतार॥
दुख शुनि तखन कहल भगवान । नीक नीक होयत कल्याण ॥
हम सन्तुष्ट देल वरदान । तकरा मध्य कथा नहि आन॥
कश्यप बहुत तपस्या कयल । विष्णु होथु सुत ई मन धयल॥
संप्रति दशरथ से तप बेसा। छथि से उत्तर कौशल देश॥
तनिकर पुत्र होयब हम जाय । कौशल्या सौँ शुभ दिन पाय॥
चारि रूप हम अपनहि हयब । केकयि सुमित्रा पुत्र कहयब ॥
माया हमरे अज्ञा पाय। सीता नाम कहौतिह जाय॥
तनिकाँ संग हरब महि भार । माया लीला अति विस्तार॥
बहुत कयल विधि प्रभु गुणगान । ई कहि भेला अन्तर्धान ॥
होयत रघुकुल विभु-अवतार । माया मानब गुण-विस्तार ॥
अपनहुँ सबहिँ एहन मति करब । वानर भालु रूप भल धरब॥
यावत प्रभु महि मण्डल रहथि। होयब सहाय जतय जे कहथि॥
ई सब देव सकल शुनि लेल । दृढ़ भरोस धरणी काँ देल॥
धरणी धरु घरु धीर सूचित्त । विभू अवतरता अहँक निमित्त॥
मनवांछित अहँकाँ अछि जैह । सकल-शाक्तयुत होयत सैह ॥
सूख सौँ विधि गेला निज लोक । ई शुनि काश्यपीक कृश शोक॥
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