॥ चौपाइ ॥ 

राजा दशरथ बड़ श्रीमान । सत्य-पराक्रम एहन न आन ॥

पुरी-अयोध्याधिप अति वीर । सकल-लोक-विश्रुत रणधीर ॥

पुत्र-हीन चिन्तातुर चित्त । गुरु-समीप-गत तकर निमित्त॥ 

कयल सविधि गुरु-चरण प्रणाम । कहलनि पुत्र-हीन धिक धाम॥

गुरु अपनेँ सन राज्य पवित्र । पुत्रहीन की कर्म्म विचित्र॥

कयल जाय गुरु तेहन उपाय । श्री-परमेश्वर होथि सहाय॥

पुत्रहीन केँ राज्यक भोग्य। लुप्त-पिण्ड-क्रिय पुत्र न योग्य ॥

लक्षण-लक्षित पुत्र अनेक । हमरा होथि से करूँ विवेक॥

गुरु वशिष्ट कहलनि तत्काल । चिन्ता मन जनु करु महिपाल ॥

चारि पुत्र अहँकाँ नृप हयत । जनिक सुयश त्रिभुवन मे जयत॥

शान्ता-स्वामी मित्र जमाय । आनू तनिकाँ अपनहि जाय॥

काम-यज्ञ करु विधि सौँ भूप । हमरा सब मिलि कर्म्म अनूप ॥

अङ्ग देश मे भाग्य विशाल। रोमपाद नामक महिपाल॥

पुत्र न तनिकहुँ गत कत वर्ष । चिन्तातुर मन रहल न हर्ष॥

तनिकाँ कहलनि सनत्कुमार । पुत्र होयत करु एहन विचार ॥

श्रृङ्गीऋषि जौँ एहि थल आब । तनिका सौँ बाढ़य सद्भाव ॥

 शान्ता कन्या तनिकाँ देब । मनवांछित फल हुनि सौँ लेब॥

श्रृङ्गी रहता घरहि जमाय । साध्य कार्य्य पुत्रेष्टि कराय॥

मन्त्री सभ काँ पुछल नरेश । श्रृङ्गीऋषि आबथि एहि देश॥

मन्त्रीगण सुनु भण महराज । बड़ गड़बड़ सन लगइछ काज॥

ओ वनचर व्यवहार न जान । सभकाँ मानथि एक. समान॥

वनिता पुरुष भेद नहि चित्त । जाएत के वन तनिक निमित्त॥

यह क्रोधी मुनि तनिकर बाप | अनुचित देखलेँ देथिन शाप ॥ 

सुमिरि सुमरि तनि पुण्य प्रताप हे महिपति जिव थर-थर काप ॥ 

शृङ्गी पिता विभाण्ड स्वभाव । साध्य न मन्त्री देल जबाब ||


॥ दोबय छन्द ॥


भूपति तखन वार - वनिता कैँ अपना निकट बजाओल ।

अपन निमित्त शृङ्गीऋषि आबथि सब कहि काज शुनाओल ॥ 

मुनि-मन-मोहिनि तोहरि सनि के जौँ ओ मुनिके लयवह ।

हमर मनोरथ - सिद्धोत्सव मे कोटि-कोटि धन पय पएब ॥ 

हाथ जोड़ि गणिकागण बाजलि साधक कार्य्य विधाता।   

आनब हम ठानब प्रपञ्च बड़, स्वस्थ चित्त रहु दाता ॥

तकइत तकइत सभजन पहुचलि पाओल तनिक ठेकाना । 

रतिपति-वर्द्धन राग अलापय रतिचेष्टा कर नाना ॥ 

सञ्च सञ्च शृङ्गी लग सभ जनि गणिका ओ संप्राप्ता ।  

तनिस अतिथि सपर्य्या पाओल तनिक जनक भय व्याप्ता ॥ 

गाबि गाबि नित गीत मनोहर मिलि मिलि मुनि तन जाथो ।  

कन्द मूल फल प्रीति सौँ देथि जे मुनिहिक सोझाँ खाथो ॥ 


|| सोरठा ॥


फल हमरो मूनि खाउ, लाइलि छी बड़ि दूर सौँ ।  

कि कहब आश पुराउ, उचित कहल 'वेश्योक्ति शुनि॥


॥ हरिपद ॥


मोदक मधुर मनोजविवर्द्धन सुधा-समान विलक्षण । 

गणिका देथि वनी नहि जानथि लगला करय सुभक्षण ॥ 

एक वर्ष सहवास नियत छल छल न बुझल दुर्ल्लक्षण । 

रतिपति-गति संप्राप्त जानि मुनि लय गेली पुर तत्क्षण ॥ 

बड़ उत्सव महिपाल कयल तत शान्ता कन्या देलनि । 

शृङ्गी मुनि जमाय सौँ मख-विधि पूर्ण मनोरथ भेलनि ॥ 

रोमपाद पुत्रोत्सव पाओल ओ नृप अहँकाँ मित्रे । 

शान्ता सहित तनिक पति आबथि कार्य्य-सिद्धि की चित्रे ॥


।। चौपाई ||


गेला रोमपाद नृप देश | श्रीयुत दशरथ विदित नरेश ॥ 

मित्र-भवन रहला किछ काल | कहल प्रयोजन निज महिपाल ॥ 

शान्ता कन्या शृङ्गि जमाय । तनिकाँ दिओनि अयोध्या जाय ॥ 

कयल लेआओन कन्या जानि । रोमपाद घर सभ लेल मानि ॥ 

जाथु अवश्य अपन घर नीक । हिनका गेलैँ निश्चय नीक ॥ 

चलला कन्या - संग जमाय । दशरथ हर्ष कहल नहि जाय ॥ 

पहुँचलाह नृप अपना नगर । भेल हकार नगर मे सगर ॥

तनिक चुमाओन उत्सव गीति । सुता जमाइक सन सब रीति ॥ 

सभ रानी मन हर्ष अपार । नित नव वर कन्या व्यवहार ॥ 

दशरथ यज्ञ कयल तत गोट । इन्द्रक विभव देखि पड़ब छोट ॥ 

महिमै जतेक महीप छलाह । दशरथ-यज्ञ-समय अयलाह ॥ सभ

सभहिक कयल परम सन्मान । गुरु वसिष्ठ वरु - मन्त्रि-प्रधान ॥ 

यज्ञारम्भ वसन्त विचारि । सहस्राक्ष मन मानल हारि ॥


॥ हरिपद ॥


दशरथ नृपति विष्णु मतिसौँ तत शृङ्गी मुनिकेँ अनलनि । 

मन्त्रीसहित नृपति अति शुचिसौँ सविधि काम-मख ठनलनि ॥ 

पापराहत चित मुनि श्रुति- पारग बहुत यज्ञमे अयला । 

होम अनल सौँ दिव्य पुरुष एक स्वर्ण-वर्ण बहरयला ॥ 

पायसपूर्ण पात्र कर लेलय कहि गुण नृपकैँ देले । 

थोड़हि दिनमे परमेश्थर सुत मन मानू अछि भेले ॥ 

पायस लेल नृपति आनन्दित मुनि- गुरुपद कय वन्दन । 

अन्तर्द्धान अग्नि कहि भेला आधि भेल सब खण्डन ।

गुरु वसिष्ठ शृङ्गी ऋषि कहलनि रानी पायस खयतो । 

को विलम्ब शुभ अबसर नृप अछि पूर्ण-मनारथ हयता ॥ 

कौशल्या केकयी छली तँह दूइ भाग कय देलनि । 

ततय सुमित्रा पाछाँ अइली तनिकाँ नहि किछु भेलनि ॥


अपन भागसौँ दुनु जनि रानी अर्द्ध भाग पुनि कयलनि॥ 

देल सुमित्रा काँ तीनू जनि पायस से तहँ खयलनि ॥ 

सभ जनि भेलि सगर्भा तनिकहि छवि सौँ मन्दिर शोभित॥

जगन्निवास जत कयलनि कोटि भानु शशि क्षोभित ॥ 


॥ हंसगति छन्द ॥


भक्तक वश भगवान एहन मति फुरलनि ।

दशम मास मधु आश प्रभु पुरलनि ||

कौशल्या थिकि धन्य जनिक सुत भेलाह |

ब्रह्मानन्दानन्देँ दोष दुख गेलाह ॥ 

शुक्लपक्ष नवमी शुभ कर्क उदित हित । 

मध्य दिवस नक्षत्र पुनर्व्वसु अभिजित ||

पञ्चग्रह उच्चस्थ मेषमे दिनकर | 

सृष्टि त्रिगुण उत्पत्ति शक्ति कर जनिकर |


|| चौपाइ ॥


वारिद वरिसल तखना फूल | जन्म लेल सभ सम्पति मूल ॥ 

नीलोत्पलदल श्यामल राज । चारि सुभुज कनकाबर भ्राज ॥ 

अरुण जलज वर सुन्दर नयन । कुण्डल मण्डित शोभा - अयन ॥ 

सहस सूर सन सुछवि प्रकाश । कुटिल अलक सुमुकुट भल भास ॥ 

शंख रथाङ्ग गदा जल - जात | वनमाली स्मितमुख अवदात ॥

नयन करुण सरसौँ परिपूर । इन्दी वर शोभा कर दूर ॥ 

श्री श्रीवत्स हार रमणीय | केयुर नूपुर गण कमनीय ॥


॥ दोहा ॥


कौशल्या देखल सकल, अदभुत बालक भेल । 

कहलनि से कर जोड़िकेँ, कनइत हर्षक लेल ॥


।। चौपाई ॥


वार वार करिय प्रणाम । हम अबला अज्ञानक धाम ॥ 

वचन बुद्धि मत पहुँच न जतय । स्तुति हम कि करब फुरयन ततय ॥

रचना पालन प्रलय स्वतन्त्र | विश्व चढ़ल भल माया-यन्त्र ॥

ब्रह्म अनामय हर्षक मूल । हमरा पर से प्रभु अनुकूल ॥ 

अहँक उदर-वर बस संसार । हमर तनय बनलहुँ व्यवहार॥

 कहइत छी प्रभु हम कलजोड़ि । रूप अलौकिक ई दिअ छोड़ि ॥ 

एहि रूपक हमरा रह ध्यान । बनल रहय नित ई हित ज्ञान ॥ 

सुन्दर शिशु सरूप अहँ धरिय।  दिन दिन देव कृतार्थित करिय ॥


॥ रोला छन्द ॥


तखन कहल श्रीनाथ अम्ब वांछित अछि जेहन । 

किछु नहि करब बिलम्ब रूप करइत छी तेहन ॥ 

भूमि भार हरणार्थ विधि स्तुति बहुत शुनाओल । 

अहँ दशरथ तप कयल तकर फल दर्शन पाओल ॥ 

हमर होथु श्रीनाथ पुत्र पूर्व्वहि मँगलहुँ वर । 

दुर्ल्लभ दर्शन हमर लाभ अछि नहि संसृति डर ॥ 

ई संवाद जे पढ़न शुनत सारूप्य हमर से  । 

दुर्ल्लभ हमर स्मरण अन्तमे पाओत नर से ॥


।। चौपाई ॥


ई कहि बनला सुन्दर बाल । इन्द्रनील छवि नयन विशाल ॥ 

बाल अरुण तन दिव्य प्रकास । जनिकर माया विश्व विलास ॥ 

पुत्र जन्म शुनि मुदित महीप । सत्वर गेला (ह) गुरुक समीप ॥ 

सहित वसिष्ठ देखल नृपतनय । हर्ष किछु नहि कहइत बनय ॥ 

जय जय शब्द सकल थल सोर । नृपति नयन वह हर्षक नोर ॥ 

तखन कयल नृप जातक कर्म्म । उत्तम कुलक उचित जे धर्म्म ॥ 

केकयि सौँ उत्पति सुत भरत । कमल कि लोचन - समता करत ॥ 

पुत्र सुमित्राकाँ दुइ गोट । लक्ष्मण ओ शत्रुघ्न सुछोट ॥

देल विप्र काँ गाम हजार ।  बड़ गोट उत्सव चारि कुमार || 

कनक रत्न पट ओ गोदान । करथि नृपति जौँ हो कल्यान ॥


॥ घनाक्षरी ॥


मगन महीप मन देखि याचक गन, देव देव करथि अनन्त रत्न वरषन । 

कत रथ चढ़ि कत गजराज पीठ कत वाजिराजिन रहल चित्त घरषन ॥ 

सोहर मनोहर सुगाब किन्नरो नरोक बनलि सुरुप एत जन केओ परख न ॥ 

देवदुन्दुभीक धुनि गगन प्रसून-वृष्टि रामचन्द्र जनम उत्सव की प्रहरगन ॥


।। चौपाई ॥


रमित होअ मुनि-मन जहि ठाम । तनिकर नाम धएल मुनि राम ॥ 

कारक भरण भरत तैँ नाम । लक्षण युत लक्ष्मण गुण-धाम ॥

करता गय शत्रुक संहार । नाम  धयल शत्रुघ्नउदार ॥ 

रामक सह लक्ष्मण रह सतत । शत्रुघ्नो भरतक संग निरत ॥ 

दुइ दुइ जन  पायस अनुसार । बाल सुलीला कर सञ्चार ॥ 

बालक वचन सुधाक समान । राजा रानी शुनि शुनि कान ॥ 

मन आनन्द कहल की जाय । वचनमे - मनोहर चारू भाय ॥ 

बाल विभूषण शोभा वेश । से देखि रानी मुदित नरेश ॥ 

नाचथि गाबथि नाना रङ्ग । सम वय बालक लय लय सङ्ग ॥ 

नृपति बजाबथि भोजन बेरि । हँस पड़ाथि लग जाथि न फरि ॥ 

कौसल्याकाँ कह तह  भूप।  पकड़ि लाउ बालककाँ चूप॥ 

हसइत कहुखन अपनहि आब । कादो माटि हाथ लपटाब॥ 

किछु किछु नृपति रुचि सौँ खाथि । चञ्चल खेड़िक हेतु पड़ाथि॥ 

बालक कौतुक जे प्रभु कयल । से शिव गिरिजा मानस धयल ॥

बरुआ भेला चारू कुमार ।  उपनयनक गुरु  कयल विचार ॥

चारू जन विधि सौँ उपनात । सभ विद्या पढ़ि परम विनीत ॥ 

धनुर्वेद-विद्या-निष्णात  । शास्त्र न एक तनिक अज्ञात ॥  

राम संग लक्ष्मण नित रहथि । आज्ञा करथि राम जे कहथि ॥ 

शत्रुघ्नो भरतक सग तेहन | लक्ष्मण राम राति मति जेहन || 

अश्व चढ़ल कर धनुष सुबाण | नित्य शिकारक हेतु प्रयाण ॥ 

मेध्य मेध्य मृग मारथि जाय । पिता निकट से देथि पठाय ।

उठि सबेर स्नानादिक कर्म । करथि सनातन जे कुल-धर्म्म ॥ 

राज काज कर आलस थोड़ । लागथि नित्य पिताकाँ गोड़ ॥ 

बन्धु सहित गुरु आज्ञा पाय । भोजन करथि तखन नित जाय ॥

धर्मशास्त्र विधि शुनि व्याख्यान | करथि सतत मन उत्तम ज्ञान ॥


॥ दोहा ॥

मानव- लीला करथि प्रभु, निर्गुण रहित विकार । 

जानथि ब्रह्मा प्रभृति नहि, विभु माया विस्तार ॥

इति श्री मैथिल चन्द्रकवि-विरचिते मिथिला-भाषा रामायणे तृतीयोध्याय: ।